विशुद्ध स्वर रचनात्मक बदलाव का साक्षी
अंतरतम
डॉ. संजय पंकज
अंतरतम के खरतम को अभी जलाना शेष है
हमारे ऋषि कवि ने आलोक की अभ्यर्थना करते हुए गाया – असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतगमय।
असत्य से सत्य की ओर चलें, अंधकार से प्रकाश की ओर चलें, मृत्यु से अमरता की ओर चलें। इन शाश्वत पंक्तियों पर हम गंभीरता से ध्यानस्थ होकर विचार करें तो इसके सच्चे अर्थों की प्रतीति होगी। कई कई अर्थ हमारे सामने खुलते चले जाएंगे। आलोक की आराधना में महाप्राण निराला ने गाया – ‘मां अपने आलोक निखारो, नर को नरक त्रास से वारो।’ आलोक की देवी दीपावली में धरती पर उतर आती है।
ज्योतित हो उठता है हर घर, आंगन! जगमग जगमग करने लगती है दिशाएं! फैलती है दीपों की रोशनी और बेतहाशा भागता है अंधकार! बाहर के उजाले से नहीं भागता, डरता भी नहीं और दम नहीं तोड़ता है भीतर का अंधकारय बल्कि वह तोड़ता रहता है अस्तित्व को। प्राणों में जब उजाला भर जाता है तो दीपावली की सार्थकता और व्यापकता प्रतिपादित होती है।
ऋषि कवि के आकुल मन के विकल स्वर ही आलोक की अभ्यर्थना हैं। असत्य से सत्य की ओर चलना अंधकार से प्रकाश की ओर चलना है और अंधकार से प्रकाश की ओर चलना ही मृत्यु से अमरता की ओर चलना है। अमरता आत्मा के आलोक में है और आत्मा असत्य की संगति में नहीं होती। आलोकित आत्मा स्वयंसिद्ध अमरता को प्राप्त करती है। आलोक चेतना में जब ठहरता है तो कोई विश्वकवि रवीन्द्रनाथ स्वर के प्रवाह में प्रदीप्त होता है- ‘आलो आगो, आलो आमार, आलो भुवन भरा।’ आलोकित अस्तित्व सर्वत्र अमरता के उजाले में शाश्वत और कालजई होता है।
दीपावली संस्कृति की जय यात्रा है। आलोक का भाव पहले मन में फूटा फिर वह जगत में फैल गया। बाहर ज्यों ज्यों फैलता चला गया आलोक मन से त्यों त्यों छूटता चला गया। अब तो दिखावा, प्रदर्शन और पाखंड बनकर अश्लील होता चला जा रहा है हमारा महान आलोक पर्व! मन वानप्रस्थ नहीं हुआ, उसने संन्यास भी नहीं लिया फिर भी जाने क्यों उदासी और संकीर्णता की कालिमा से आच्छादित अस्तित्व का आकाश अहंकार के पारावार में अकारण भी उतराता रहता है। संभव नहीं है शून्य में आलोक! आलोक धरती में है तभी तो धरती जीवन सिरजती है। आलोक सृजन है, सतत यात्रा है, अभिराम विराम है!
सितारों से जगमगाते हुए आसमान को देख कर संभव है कि हमारे पुरखों ने धरती को जगमगाहटों से भर देने का अभियान शुरू किया होगा। प्रकृति के प्रत्यक्ष दर्शन के मर्म को हमारे पूर्वजों ने समझा था। उन्होंने समझा था कि शून्य भी प्रकाश से अस्तित्व में आ जाता है। खोखला प्रकाश से बज उठता है और खाली भर जाता है। जब सन्नाटा आलोक से सुरीला हो सकता है तो फिर यह जीवनाधार धरती आलोक से वंचित क्यों रहे। हमारे पुरखों ने यह भी समझा था कि आलोक धरती की कोख में है। मिट्टी की पथरीली परतों को तोड़ कर निकलता हुआ कोई अंकुर आलोक-देवता सूर्य को धता बताते हुआ मानो कहता है कि मैं हरियाली के आलोक के साथ तुम्हारी ओर लगातार उन्नत सिर हो तन रहा हूं। अनंत और असीम राग का अछोर फैलाव है आलोक। दीपावली आकाश को धरती की चुनौती है। आलोक देवता अकेला हो सकता है लेकिन आलोक की देवी अकेली नहीं होती है! दीपों की अवलियों में वह एकतान हो जाती है। वैसे भी कभी अकेली नहीं होती है स्त्री! उसके साथ सदा होता है भरा-पूरा एक संसार! दीपावली संसार के भीतर आलोक का प्रतिसंसार रचती है!
विज्ञान के विकास से तकनीकी सुविधाएं बढ़ी हैं। तकनीक ने रात को भी दिन में परिवर्तित भले ही कर दिया है मगर वह कोई सूरज नहीं बना सका। डंका पीटते हुए विज्ञान चरम पर पहुंचने का चाहे जितना ऐलान करे लेकिन उसका विकास आज भी बहुत छोटा, एकांगी तथा सीमित है। भारतीय पर्व त्यौहार असीम को साधने का ऐसा मंगल अनुष्ठान है जिसमें अलौकिकता का आनंद भरा होता है। बाजारीकरण की भेंट चढ़ गया आनंद। पर्व परस्पर के गहरे संबंध से सर्वथा विलग होकर व्यापार का व्यवहार मात्र बनकर रह गया है। क्षणिक दिशाहीन सुख की गुदगुदाहट को ही आनंद समझने के भ्रम में जीता हुआ उपभोक्तावादी समाज अंधकार की बहुत लंबी सुरंग में बुरी तरह फंस गया है। जाने कब अंधकार की सुरंग के पार उसे कोई रोशनी मिलेगी? हमारे पूर्वजों का बहुत प्रबुद्ध होने के बाद भी एक शिशु-मन सदा बचा रहता था। आज शिशु के भीतर भी शिशु-मन नहींय हर क्षण हांफता, भागता, उलझा और सशंकित मन उद्वेलित होता रहता है। प्रकृति और ऋतुओं की संवेदना को जीने वाला विराट मन जाने कहां खो गया है और उसकी जगह ऐसा प्रदूषित मन आ बैठा है जिससे भोलापन, सादगी, सहजता, सरलता, चपलता और आनंद सब कुछ छूट गया है।
किसी त्योहार के आगमन से कई दिनों पूर्व से ही उछलने लगता था मन और चहकने लगता था घर-आंगन! शांत गलियां भी खुशबू के शोर से गुंजायमान होने लगती थीं। सगे संबंधियों तथा समाज के हृदय में नृत्य-गीत का स्पंदन होने लगता था। बच्चे आसमान को छू लेने तक की छलांग लगाते थे। युवक अपनी मस्ती में दिशाओं को भुज में समेट कर हवा को पी लेने की अदा में दिखने लगते थे। घर के बड़े बुजुर्ग हिदायतों की मिठास घोलते हुए अपनी छाया को और छतनार बना देते थे।
आज बाजार के बहुरेंगे इत्र और परफ्यूम से स्वयं को महकाने के लिए प्रतिस्पर्धी हो रहे हैं लोग जबकि पर्व त्यौहार के मौसम में सबके भीतर से बहुरंगी सुगंध उड़ती रहती थी, जो आंखों में, कदमों में, सांसो में और बातचीत में प्रसरित होती रहती थी। त्योहार के आत्मीय दौर से गुजरा हुआ मन उदास होकर भी आशावादी होता है और जब देखता है कि कोई प्यार के बोल बोल रहा है तो हठात दबे होंठ खुल-खिल उठते हैं –
सलीके से यूं खुशबू सी हवाओं में घोल देते हैं कुछ लोग हैं जो मुश्किलों में भी मीठा बोल लेते हैं!
दीपावली प्रकारांतर से हमारा आदिम ज्योति पर्व है। आसमान में चमकते सितारे मनुष्य के मन को सम्मोहित करते रहे और चुनौती भी देते रहे कि तुम्हें अपनी बुद्धि और कौशल पर बड़ा भरोसा और अभिमान है तो अपनी धरती को हमारी तरह ज्योतित कर लो। शब्द, प्रकृति, अंतरिक्ष और नक्षत्रों से संवाद करने वाले हमारे प्रज्ञावान पूर्वजों ने चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया और अक्षर-आलोक की साधना में लग गए। सूरज, चांद, सितारे सब उसकी चेतना में चुंधियाने लगे। असंख्य चांद, अनंत सूरज, अछोर सितारे आलोकित हो उठे उसके अंतःप्राण में। मनुष्य ने सबको साध लिया।
सब के सब उसके वशीभूत हो गए। मनुष्य की पकड़ से कोई अछूता नहीं रहा। सागर मथा गया, निकले रत्न तो उसके उपभोग मनुष्य के भाग्य में लिख गए। मनुष्य ने लक्ष्मी और धन्वंतरि को दीपावली के परिप्रेक्ष्य में सर्व कालिक प्रासंगिक और व्यावहारिक बना दिया। वेद, उपनिषद् और पुराण काल से आगे बढ़ती आलोक- यात्रा लंका-विजय के उपरांत अयोध्या में दीपावली के साथ अलौकिक रूप में लौकिक हो गई।
स्वच्छता और तिमिर-हरण का यह कल्याणकारी अभियान निरंतर परवान चढ़ता चला गया। दीपक राग गूंजने लगा। वैदिक ऋषियों-कवियों ने देवी-देवताओं को प्रत्यक्ष किया। उन्हें ज्योति-वलय में प्रकट और उजागर किया। तमस पर सत्व की विजय-गाथा हर वर्ष भारतीय सनातन परंपरा में ज्योति पर्व के रूप में लहराने लगी। यह धार्मिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, आर्थिक और माननीय पर्व प्रकृति की विराट उपासना। आलोक की अभ्यर्थना में ऋचाएं निर्मित हुईं, मंत्र लिखे गए, प्रार्थना के स्वर गूंजे! संस्कृत वांग्मय में ज्योति छंद भरा पड़ा है। बचपन से आज तक माघ शुक्ल पंचमी तिथि को वासंती परिवेश में श्वेतांबरा वाणी की आराधना में यही तो हम गा रहे हैं –
काट अंध-उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे!
आचार-विचार का दीप पर्व आज व्यवसाय के मकड़जाल में फंसकर दिग्भ्रमित हो रहा है। स्वच्छता-उत्प्रेरण का यह त्योहार प्रदूषण-पाखंड का शिकार हो गया है। मिट्टी के दिए में जलती हुई घी की बाती हमारी सामाजिकता और गृहस्थी को निष्कंप दीपशिखा में दिगंत व्यापिनी बनाती थी – यह अब धीरे-धीरे बीते दिनों की बात होती चली जा रही है। आज रंग बिरंगे बिजली के बल्ब नूर बिखेर रहे हैं। प्लास्टिक के लक्ष्मी गणेश घर में बैठ रहे हैं। मिलावटी मिठाइयां बाजार से आ रही हैं। घर की लक्ष्मी लड्डू बनाना तक भूल गई हैं। बच्चे पटाखे के धूम-धड़ाके में जोखिम उठा रहे हैं। आलोक की देवी और आलोक के देवता दूर खड़े विकास के विस्फोट में भविष्य का विनाश देख रहे हैं। मिट्टी के सत्य के बल पर हमारे पूर्वजों ने सूरज को धता बताया। जब डूबते हुए सूरज ने संसार को संकुचित दृष्टि से देखा और कहा – ‘‘मेरे सिवा और कोई दूसरा नहीं जो तिमिर को दूर कर सके। मैं नहीं तो बस अंधकार ही अंधकार।’’ मिट्टी के दिए ने मुस्कुरा कर कहा – ‘आप जाओ देवता! मैं अपनी औकात भर कोशिश करूंगा कि आपके आने तक परिवेश को रोशनी दूं।’ मिट्टी के सच और धरती की सहिष्णुता का अभिनंदन है ज्योति पर्व! हमें चिंता करते हुए चिंतन करने की जरूरत है। अपनी जड़ और परंपरा से कटे हुए लोग किसी भी संस्कृति और सभ्यता के न तो संरक्षक हो सकते हैं और न ही संवाहक ही। हमें गाना होगा आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के इस भाव को –
जीवन ज्योति जले!
अथिर तिमिर आलोक लोक को
पलछिन भी न छले!!
देखा-देखी और फैशन परस्ती से तथा पाश्चात्य की उपभोक्तावादी संस्कृति के अनुसरण से अपनी समृद्ध परंपरा की विरासत को बचाने की नितांत आवश्यकता है। हमारी परंपरा एक दिन की उपज नहीं है। यह कल्प दर कल्प आजमाई गई है।
आइए! हम दीपावली को फिर से ले चलें उसके यथार्थ में। असंख्य दीप जले गांव-शहर की डगर डगर पर, गली गली में, जंगल, पर्वत, नदी, सागर सब पर दीप जले! धरती की धूली ले सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की समस्त धूमिलता को मांज कर चकमक चकमक कर दें। सबको आलोकित होने का ऐश्वर्य प्रदान करें, यह तभी जब –
जगर मगर है डगर डगर सब
हिलमिल झिलमिल गाँव नगर सब
बाहर का तम जल गया मगर
अंतरतम के खरतम को तो
अभी जलाना शेष है!
मन उजलाना शेष है!!!
संपर्क: मो- 6200367503