विशुद्ध स्वर रचनात्मक बदलाव का साक्षी

आलेख

पार्थसारथि थपलियाल

जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी उसकी हिस्सेदारी

विषय के शीर्षक से लगता है जैसे कहा जा रहा हो, जिसकी लाठी उसकी भैंस। यह लाठी भारतीय समाज को खंड खंड करने की एक राजनीतिक साजिश है जिसे इन दिनों बड़ी धूर्तता से भारत मे चलाया जा रहा है। कभी हिंदुत्व का विरोध, कभी सनातन का विरोध, कभी गोस्वामी तुलसीदास पर उंगलियां उठाना और अब जातीय जनगणना को राजनीति का विषय बनाना उन अनाड़ी लोगों का राजनीतिक खेल बनता जा रहा है, जिन्हें भारतीय संस्कृति के सामाजिक समरसता के तत्वों का ज्ञान भी नही। इस मुहिम के मुखिया बनने की होड़ में वे लोग शामिल हैं, जिनके पुरखे भारत के शासन की गद्दी पर बैठने के लिए आतुर रहे हैं।

विषय के शीर्षक से लगता है जैसे कहा जा रहा हो, जिसकी लाठी उसकी भैंस। यह लाठी भारतीय समाज को खंड खंड करने की एक राजनीतिक साजिश है जिसे इन दिनों बड़ी धूर्तता से भारत मे चलाया जा रहा है। कभी हिंदुत्व का विरोध, कभी सनातन का विरोध, कभी गोस्वामी तुलसीदास पर उंगलियां उठाना और अब जातीय जनगणना को राजनीति का विषय बनाना उन अनाड़ी लोगों का राजनीतिक खेल बनता जा रहा है, जिन्हें भारतीय संस्कृति के सामाजिक समरसता के तत्वों का ज्ञान भी नही। इस मुहिम के मुखिया बनने की होड़ में वे लोग शामिल हैं, जिनके पुरखे भारत के शासन की गद्दी पर बैठने के लिए आतुर रहे हैं।  राष्ट्रीय राजनीति और प्रांतीय राजनीति में वे लोग येन-केन-प्रकारेण गद्दी को हासिल करना चाहते हैं। यह जातीय जनगणना उन्ही की एक चाल है, ताकि बचाखुचा भारतीय समाज सूक्ष्म घटकों में बंट जाय। यद्यपि धर्म के नाम पर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अंग्रेजों ने अपनायी थी, जिन्होंने सबसे पहले हिन्दू- मुस्लिम एकता को खत्म किया उसके बाद सनातन के अन्य पंथ बौद्ध, जैन और सिखों को भी सनातन से अलग कर दिया, लेकिन हाल ही में सनातन संस्कृति पर हुए प्रहारों ने यह सोचने को विवश कर दिया कि इसकी जड़ में कौन है? अथवा कौन-कौन हैं? पीड़ा जबरदस्त है। आप पंप चलाकर पानी को लिफ्ट कर ऊँचाई में नहर बहा सकते हैं, लेकिन अयोग्य लोगों को कितना ही उठा लो, वे नीचे गिरने के लिए ही होते हैं। बड़े परिवारों के अनेक वंशवादी सूरमा विभिन्न स्तरों पर इस लक्ष्य को पाने के लिए भारत मे सामाजिक समरसता को समाप्त कर अपने उद्देश्य में सफल हो जाना चाहते हैं। समझ में नही आता स्वाधीनता के पिछले 76 वर्षों में हम सामूहिक राष्ट्र चेतना की प्रक्रिया निर्धारित क्यों नही कर पाए? ऐसा नही कि स्वाधीनता प्राप्ति से पहले भारत में राष्ट्रीयता का बोध नही था अगर न होता तो यह विचार कहाँ से आये?

1. माता भूमि पुत्रोहम पृथिव्या..

2. जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है…

3. उत्तरं यतसमुद्रस्य हिमादृश्चौव दक्षिणम…

अपना उपनिवेश कायम रखने, भारत को अंग्रेजियत का संस्कार देने व सनातन संस्कृति को नष्ट करने के लिए पहला प्रयास अंग्रेजों ने धार्मिक आधार पर यहाँ की जनता में भेद पैदा कर किया। दूसरे स्थान पर मुस्लिम लीग रही, जिसमें जन्मजात उम्मत की अवधारणा है। इस्लाम में धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की अवधारणा नही है। वहाँ सीमारहित खलीफा के शासन की अवधारणा है। जिनका लक्ष्य पूरी दुनिया का इस्लामीकरण करना है। तीसरे स्थान पर वामपंथ है, जो वर्णसंकर प्रजाति का है। दुनिया मे यह दर्शन फेल हो चुका है, लेकिन भारत मे इसके चिरकुट बड़ी सक्रियता से फैले हैं। ये सेकुलरी जामा ओढ़े भारत मे संस्कृति विहीन समाज की ओर भारतीय युवाओं को बढ़ा रहे हैं, उनका उद्देश्य है, सनातन संस्कृति को समाप्त करना। वे राजनीति में कम्युनिस्ट पार्टियों के विभिन्न छद्म रूपों में हैं और विभिन्न संगठनों संस्थाओं में जोंक और दीमक की तरह भारत को नष्ट करने में लगे हैं। तीसरे स्थान पर तत्कालीन नेहरू-गांधी की भारत विभाजन की तुष्टीकरण की नीति जिसने भारत विभाजन करवाया और परिवारवादी पार्टियाँ। अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो कि नीति से मुसलमानों, हिंदुओं और सिखों के मन मे अलगाववाद के बीज बोए। मुस्लिम लीग ने डबल चाल चली। भारत का बँटवारा भी करा दिया और भारत छोड़ा भी नही। धर्म के नाम पर देश का विभाजन करवा दिया। आज जो संकट है उसके पुरोधा पंडित जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच 8 अप्रैल 1950 का वह समझौता था, जिसने भारत विभाजन की भावना और उद्देश्य को समाप्त कर दिया था। सामाजिक विद्वेष का एक दौर प्रधानमंत्री श्री वी पी सिंह के कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू होते समय (1990) में देखने को मिला। समाज विग्रह के द्वंद में पहुँच गया था।

अंग्रेजी शासनकाल में 1881 से 1932 तक अलग अलग तरीके से जातीय जनगणना होती रही। ऐसे ही एक जातीय जनगणना 1941 में भी की गई थी, उसके आँकड़े जारी नही किये गए थे। अंतिम जातीय जनगणना 1932 की ही मानी जाती है। भारत मे निर्धारित मानदंडों के अनुसार जनगणना प्रत्येक 10 साल में कई जाती है। जनगणना करने का कार्य केवल महापंजीयक (जनगणना), भारत को है। स्वाधीन भारत में पहली जनगणना (1951) के समय जातीय जनगणना करवाने पर राजनीतिक नेताओं में चर्चा हुई। उसमें नेहरू जी, डॉ. अंबेडकर, राममनोहर लोहिया, आदि कई नेता शामिल थे, जिनका मत था कि जातीय जनगणना भारतीय समाज मे अलगाव पैदा कर देगी। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने जातीय जनगणना के विरोध किया था, बल्कि उस समय यह नारा कांग्रेस ने दिया था- जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगाओ हाथ पर। अपने प्रधानमंत्री काल मे लोकसभा चुनावों में श्री राजीव गांधी ने भी श्रीमती इंदिरा गांधी के नारे का (जात पर न पात पर..) सहारा लिया। यह नारा इंदिरा जी के चिकमंगलूर चुनाव के समय साहित्यकार श्रीकांत वर्मा ने लिखा था। श्रीमती इंदिरा गांधी जी के पौत्र कांग्रेस के नेता श्री राहुल गांधी ने अपनी दादी और पिताजी की लाइन छोड़कर घोषणा की कि कांग्रेस सत्ता में आई तो जातीय जनगणना करवाएंगे। यह विचार किशोर अवस्था में ही अच्छा लगेगा। दरअसल यह भारतीय समाज में वैमनश्य और द्वेष बढ़ाने का एक बुरा प्रयास है। केवल सत्ता पर काबिज होने के लिए भारतीय समाज के ताने बाने को नष्ट करने की अनुमति किसी को नही मिलनी चाहिए।

इस बार जातीय जनगणना के लम्बरदार वे लोग बने हैं, जिन्होंने इस देश को दीमक की तरह चट कर दिया है। नारे लगाए जा रहे हैं, जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी। यानी हम लठैत युग मे पहुँचने की तैयारी कर रहे हैं। चप्पुओं, गप्पूओं के द्वारा जो नैरेटिव स्थापित किया जा रहा है, समाज के पिछड़ेपन को दूर करने में उनका या उनकी पहली पीढ़ी का क्या योगदान है। क्या कभी किसी ने यह सोचा कि केंद्र में सर्वाधिक (लगभग 54 वर्षों तक) कांग्रेस की सरकार रही। इनमें से 38 वर्ष विशुद्ध रूप से पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी प्रधानमंत्री रहे। इसके अलावा डॉ. मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री काल सबसे रोचक है, प्रधानमंत्री की शपथ तो डॉ. मनमोहन सिंह ने ली, लेकिन निर्णायक भूमिका में यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ही थी। यह विवरण देने का मतलब यह कि कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी जो जनसंख्या के आधार पर न्याय और विकास चाहते, उन्हें यह चिंतन करना चाहिए कि स्वाधीनता के 76 वर्षों में कांग्रेस ने अपने शासन काल के 54 वर्ष में जातीय जनसंख्या के आधार पर न्याय क्यों नही किया।  श्री राहुल गांधी को यह भी चिंतन करना चाहिए कि कांग्रेस ने अपने समय मे किसी विछड़ा (व्ठब्) को प्रधानमंत्री क्यों नही बनाया? कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी ने जब लोकसभा में अन्य पिछड़ावर्ग के सचिवों की संख्या 90 सचिवों में से 3 बताई तो क्या वे नही जानते कि किसी मंत्रालय का सचिव वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों में से एक होता है।

क्या वे गृहमंत्री श्री अमित शाह के उत्तर को भी भूल गए, जब उन्होंने बताया कि वर्तमान में वे आईएएस अधिकारी सचिव हैं जो वर्ष 1991-92 में सेवा में आये थे, गृहमंत्री ने यह भी कहा था कि देश की व्यवस्था को सचिव नही चलाते हैं चुनी हुई सरकार चलाती है, लेकिन राहुल गांधी हैं, वे ओबीसी शब्द के पीछे पड़े हैं।

 समझने लायक बात यह भी है कि आईएएस अधिकारियों की चयन प्रक्रिया के अंतर्गत संघ लोक सेवा आयोग चयन करता है। प्रश्न तो यह भी उठता है कि किसी जाति के अधिकारी अपने जाति समूह के लिए किन नियमों के अंतर्गत तरफदारी कर सकते हैं? दरअसल आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं को भरमाने के लिए यह एक राजनीतिक चाल है। यह चाल अंग्रेजों की कुटिल चाल से अधिक हानिकारक है। ये वे लोग हैं, जो ऐश्वर्यमय जीवन जीने के आदी है, समाज को भाड़ में झोंके बिना ये अपना उल्लू सीधा नही कर सकते।

बिहार में जातिवादी राजनीति के पुरोधा श्री लालू प्रसाद यादव से लेकर श्री नीतीश कुमार तक लगभग लगभग 34 वर्षों से मुख्यमंत्री रहे हैं, कोई ये बताए कि इतने वर्षों में इन्होंने सामाजिक व आर्थिक असमानता को मिटाने के लिए क्या किया? अगर सब कुछ किया तो विभिन्न जातियों के मध्य केवल इनका ही परिवार करोड़ों रुपये का हकदार कैसे बना।

श्री राहुल गांधी का कहना है जनसंख्या के अनुसार विकास हो, जिसकी जाति के जितने अधिक लोग हों उन्हें उतनी अधिक हिस्सेदारी मिले। एक अनुमान के भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों सहित लगभग 6000 बड़ी जातियां हैं इनकी उपजातियां 30,000 से अधिक हैं। ये सभी भारतीय हैं। एक विवरण के अनुसार भारत में अन्य पिछड़ा वर्ग में 2,650 जातियां शामिल थी। समय समय पर अलग अलग राज्यों में कुछ नए वर्ग उभर आते हैं, जो स्वयं को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल होने की मुहिम चलाते रहते हैं। यह खेद का विषय है कि भारतीय समाज मे कुछ वर्ग स्वयं को स्वाभिमानी बनाने की बजाय पिछड़ा घोषित करने में सम्मानित अनुभव करते हैं। बिहार राज्य में पिछले 33-34 वर्षों से अन्य पिछड़ा वर्ग के मुख्यमंत्री (लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार) रहे हैं। क्या इतने वर्षों में ये तीनों लोग पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए कोई योजना क्यों नही लाये? उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह पिछड़े वर्ग के अग्रणी नेता रहे हैं, उन्होंने अपने परिवार और अपनी जाति के अलावा अन्य पिछड़ा वर्ग के दूसरे लोगों को आगे बढ़ाने के

उपाय क्यों नही किये? क्या इस गणना से भारतीय समाज विशेषकर सनातन संस्कृति के लोगों में आपसी द्वेष, अलगाव, उपेक्षा और भेदभाव का वातावरण नही बढ़ेगा। जिन लोगों ने सत्ता में रहते हुए संविधान में वर्णित समानता के चिंतन को नकारकर भ्रष्टाचार को बढ़ाया उन्हें दंडित क्यों नही किया जाना चाहिए। आज जिन्हें यह लग रहा है कि जातीय जनगणना बहुत आवश्यक है तो उन्हें यह भी देखना चाहिए कि वे हिन्दू समाज को टुकड़ों में बांटकर बंदरबाँट के फार्मूले को बढ़ावा देना चाहते हैं।

कर्नाटक में 2015 में जातीय जनगणना हो चुकी, यद्यपि उस जातीय गणना को मान्यता नही मिली। फिर भी जो आँकड़े बाहर आये उनसे लगता है समाज प्रगति की होड़ में आगे बढ़ने की बजाय अपनी संख्या पिछड़ों में बढ़ाकर बताने में गौरवान्वित हो रहा है। कर्नाटक में 180 नई पिछड़ी जातियाँ उभरकर आ गई। कई ऐसी जातियों का भी पता चला जिनकी संख्या 20 से भी कम है। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि भारत की राजनीति में नेता बनने की आकांक्षा में अधिकतर वे लोग आगे आ रहे हैं, जो सत्ता पर काबिज होने के लिए मुफ्तखोरी का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। सरकारी धन का उपयोग चुनाव जीतने के लिए किय्या जा रहा है। मुफ्त का राशन, मुफ्त का बिजली/पानी, मुफ्त की यात्रा आदि आदि। लोगों में स्वाभिमान की भावना बढ़ाने की बजाय पिछड़ा होने मे बडप्पन का भाव जगाया जा रहा है। बिहार में आँकड़ों ने बता दिया कि यादव जाति की संख्या अधिक है।

सूत्र है ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी’। इससे यह निष्कर्ष निकाला जो नगण्य संख्या वाली जातियाँ होंगी, उनकी स्थिति तो कीड़े-मकोड़े जैसी होगी। इस देश में कांग्रेस ने पहले समाज के विभाजन में हाथ बढ़ाया था, लेकिन कांग्रेस ने जब अहसास किया कि भारतीय संविधान में नागरिक/सिटीजन की परिभाषा है। जनगणना की व्यवस्था है। जनगणना के आँकड़े भी गोपनीय रखे जाते हैं, ताकि उनका दुरुपयोग न हो। जातीय गणना की व्यवस्था नही है। इसलिए लंबे समय तक यह बात दबी रही।

असफलता कहाँ है? उसके कारणों को कोई नही जानना चाहता। बिहार में 34 वर्षों से पिछड़ों की ही सरकारें है। जातीय जनगणना की रिपोर्ट 2 अक्टूबर 2023 को पटना में जारी की गई। इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग की संख्या 36.01 प्रतिशत, पिछड़ा वर्ग की संख्या 27.12 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 19.65 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 1.68 प्रतिशत और अनारक्षित वर्ग के लोगों की संख्या 15.52 प्रतिशत बताई गई है। अब उस फॉर्मूले को लगाइए जो कहता है ‘जिसकी संख्या जितनी भारी उतनी उसकी हिस्सेदारी’ क्या ऐसा करने से जातीय संघर्ष नही बढ़ेगा? इससे यह भी पता चला कि 34 वर्षों से पिछड़े वर्ग की सरकार होते हुए भी पिछड़ों की संख्या और बढ़ी है। बढ़ी ही नही है बल्कि पिछड़ा वर्ग में एक नया वर्ग बढ़ा जिसे अत्यंत पिछड़ा वर्ग कहा गया। क्या जनसंख्या बड़ी होने की वजह से निकम्मे लोगों को सरकार संचालन का अवसर दिया जाना चाहिए? हमारे देश में इस दृष्टि से सरकारों ने काम नही किये कि जिस दिन गरीब की गरीबी दूर हो जाएगी, उस दिन पूरे समाज का विकास हो जाएगा। चिंतन का विषय यह भी है कि आरक्षित वर्ग का लाभ आज भी वही लोग अधिक उठा रहे हैं, जिनके बच्चों को शुरुआती दिनों में आरक्षण का लाभ मिला। भीलों, गरासियों, बकरवालों, बोक्साओं… आदि के जीवन मे क्या आनुपातिक वृद्धि, समृद्धि आयी है? राज्य सरकारों के पास गरीबी के आँकड़े हैं, बजाय समाज मे विग्रह पैदा

करने के बिना जातिभेद के कमजोर वर्ग को सक्षम बनाकर समान धरातल पर लाकर खड़ा कर देना चाहिये। ऐसा होने पर सामाजिक भेदभाव और असमानता मिट पाएगी तथा सामाजिक न्याय भी स्वतः स्थापित होगा। यह भी विचारणीय है कि वर्तमान में सोशल इंजीनियरिंग में वे लोग आगे आ रहे हैं, जिनका न चिंतन है न उनमें चेतना है। कुछ अनाड़ी लोग भारत की सामाजिक समरसता को समाप्त करना चाहते हैं। इन्हें रोका जाना चाहिए।

(लेखक भारतीय संस्कृति सम्मान अभियान के संयोजक हैं।)

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