विशुद्ध स्वर रचनात्मक बदलाव का साक्षी

कविताएँ

अवधेश सिंह

समय: तीन शब्द चित्र

1.समय जिदंगी का ककहरा है

खुशियों में कभी रुका नहीं

दुख में भी कभी नहीं ठहरा है

समय,

जो कभी पकड़ में नहीं आया

अपने विषय में देता कोई जवाब

अतीत वर्तमान का कोई सीधा सटीक सा हिसाब …

समय , अरे तेरा क्या , है कभी अच्छा – कभी खराब..

2. समय, समय के कई रूप हैं कभी चिलचिलाती कड़ी धूप है कभी सावन की रिमझिम फुहार है कभी बसंत की बहार है समय, हाड़ तोड़ बर्फीली शीत है बेमौसम की झूठी रीत है… समय, अखबार से हर दिन बिखरता सच है, समय, बुद्धिजनांे और पाठक के बीच उपज रही आस्था विश्वास की अपच है… समय, भाषा और होठों के बीच टूटता संकल्प है समय, खुद से निराश अवसाद ग्रस्त  मौत में मंतव्य खोजता आज की आधुनिक भौतिक सुख से लदी फदी जिंदगी का अनचाहा आत्मघाती विकल्प है…

 3. समय, दिल से निकली मशालों तक पहुंची ज्वाला है.. मानवता के बीज को ढूंढता जड़ हो गए कुंठित विचारों का आपाधापी पर भारी पड़ती अति महत्व कांक्षा का मदिरा के साथ मांस का गटकता निवाला है … समय, अचानक काबू से बाहर हुए बिगड़ैल गधे की कड़ी दुलत्ती है समय सिसकियों से व्यक्त होता बंधे हाथो पर मर्यादा की जलती मोमबत्ती है … समय, थर्मामीटर से टूट कर बिखरता पारा है प्रेम पत्रों के फटे पृष्ठों को चिंदी चिंदी करती अविरल आंसुओं की नमकीन धारा है .. समय, बिंदास – हरफन मौला खुद की तालियां और खुद की वाह है.. जो समय को नहीं दे रहे भाव, उनके लिए यह आज भी अजीज अपना हो कर भी साथ चलता एक अदद लापरवाह है…।

दीप जलाओ…दिल के द्वार

 1. हटें दूर अब मन के अंधेरे संबंध को शंकायेँ न घेरे हृदय में बढ़ता जाये प्यार प्रकाश पर्व का यह त्यौहार…

2. जग से जीता स्वयं से हार शापित न हो अब सत्कार विजय पर्व उल्लास मनाओ सम्मति है जीवन का सार ३.

3. मझधारी उपकार है नैया जो डूबे वह खुद है खेवैया खुद पतवार बनो जीवन की पार करो गहरी जल धार… दीप जलाओ…दिल के द्वार

माँ अपने आलोक निखारो

                                     सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

माँ अपने आलोक निखारो, नर को नरक-त्रास से वारो। विपुल दिशावधि शून्य वगर्जन, व्याधि-शयन जर्जर मानव मन, ज्ञान-गगन से निर्जर जीवन करुणाकरों उतारो, तारो। पल्लव में रस, सुरभि सुमन में, फल में दल, कलरव उपवन में, लाओ चारु-चयन चितवन में,  स्वर्ग धरा के कर तुम धारो।

दीप

                                         जयशंकर प्रसाद

धूसर सन्ध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को, अन्धकार अवसाद कालिमा लिये रहा बरसाने को। गिरि संकट के जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था, कल कल नाद नही था उसमें मन की बात न कहता था। इसे जाह्नवी-सी आदर दे किसने भेंट चढाया हैं, अंचल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया हैं। जला करेगा वक्षस्थल पर वहा करेगा लहरी में, नाचेगी अनुरक्त वीचियाँ रंचित प्रभा सुनहरी में, तट तरु की छाया फिर उसका पैर चूमने जावेगी, सुप्त खगों की नीरव स्मृति क्या उसको गान सुनावेगी। देख नग्न सौन्दर्य प्रकृति का निर्जन मे अनुरागी हो, निज प्रकाश डालेगा जिसमें अखिल विश्व समभागी हो। किसी माधुरी स्मित-सी होकर यह संकेत बताने को, जला करेगा दीप, चलेगा यह सोता बह जाते को।।

दीप राग बज उठे

                                        संजय पंकज

एक दीप द्वार पर एक दीप देहरी! दीप दीप जल गए रौशनी हरी हरी! दूर-दूर भूमि यह दीखती कि झूमती कि केंद्र की कील पर मंद-मंद घूमती  तान-तान मधुरिमा ज्योति-लय विभावरी! आंख आंख नूर से कोहिनूर बन गई दीप-राग बज उठे किरण डोर तन गई जगमगा रहा तिमिर भूल भूल मसखरी! छंद छंद छानकर अन्तरा बुहारती काव्य की सुटेक पर गीतिका संवारती सांस सांस रागिनी वियोगिनी बैखरी! निशा दिशा भूलकर छांह छांह डोलती ताल ताल भर अमा रंग गंध घोलती झूम-झूम नाचती समां बांध गुर्जरी!

माँ

                                      प्रतिभा मिश्र

स्नेह-मोह-संताप की गठरी, ले सिर पर चलती। कभी नहीं बच्चों में दिखती, उसको कुछ गलती।। उसके आँसू पीकर मानो, जलधि हुआ खारा। धरती जैसी क्षमाशीलता, जग उससे हारा।। समय गया अबला बन बैठी, उसकी क्या चलती? कभी नहीं बच्चों में दिखती, उसको कुछ गलती।। फटे हुए रिश्ते के पट में करती तुरपाई। जिसकी दिखे जरूरत जैसी, करती भरपाई।। लेकिन उसकी यही रीति तो अब सबको खलती। कभी नहीं बच्चों में दिखती उसको कुछ गलती।। सम्मुख हँसी, विकलता पीछे,जादूगर-सी माँ। आँसू पी, मन हरा दिखाना,सदा भँवर-सी माँ।। सँभल-सँभल पग आगे रखना, हर बाधा टलती।। कभी नहीं बच्चों में दिखती उसको कुछ गलती।।

संपर्क: 7839401287