साहित्य और सृजना का साक्षी: विशुद्ध स्वर

कहानी

दूर होते रिश्ते

नौकरी मिलने की खुशी राम से अधिक उसके बापू दशरथ को थी। वह कागज लेकर सारा गाँव घूम आये थे। दूसरे ही दिन मंदिर जाकर पूरे पाँच किलो मिठाई का प्रसाद चढ़ा आये थे। वहाँ से लौटने पर रास्ते में जो भी मिलता उसे रोककर और प्रसाद देकर बेटे को नौकरी मिल जाने का समाचार बताते।

खुशी क्यों न होती, ढेर सारी तकलीफें झेलते हुए पढ़ाया था उसे। ज़मीन तो कोई खास थी नहीं उनके पास। यही दो-चार बीघा बस। एक बैल से तो खेती हो नहीं सकती थी इसलिए रतन चौधरी से उनका बैल मांग लाते और खेत जोतते फिर अपना बैल उन्हें दे आते और वह अपने खेत जोतते। इसी तरह खुद उनका और रतन चौधरी का खेती का काम चला करता। मड़ाई भी इसी तरह मिल जुल कर किया करते थे।

बेटे की नौकरी मिल जाने से दशरथ ख्याली पुलाव पकाते रहते। एक बैल और ले लेंगे और फिर दो बैलों से ठीक से खेती करेंगे। एक-एक बीघा करके कुछ खेत भी ले लेंगे। मकान भी थोड़ा- थोड़ा करके पक्का बनवा लेंगे।

राम शहर में नौकरी कर रहा था, लेकिन अपनी पत्नी को साथ नहीं रखता था। जब भी शहर से आता बापू और माँ के लिए कुछ न कुछ उनकी पसन्द का सामान जरूर लाता। उनके स्वास्थ्य का भी बहुत ध्यान रखता। तभी तो सुन्दर से कह रखा था कि घर पर एक किलो दूध दे दिया करो। और पैसा बापू या अम्मा से नहीं मांगना। मैं खुद छुट्टी में आकर हिसाब करता रहूँगा। महीने में एक बार घर आता ही हूँ। सुन्दर दूध देता रहता और हर महीने राम उसका हिसाब कर देता।

इस सबको लेकर गाँव के लोग दशरथ से ईर्ष्या करते। कहते, ‘‘बड़ा भाग्यशाली है दशरथ जो ऐसा बेटा मिला है उसको। नहीं तो आजकल के लड़के नौकरी मिलते ही अपनी बीबी को लेकर अलग हो जाते हैं और शहर में बस जाते हैं। कौन करता है माँ-बाप की सेवा।’’

दो-तीन साल बीत गये। ऐसे ही जब एक बार वह छुट्टी से वापस जाने की तैयारी कर रहा था, उसकी पत्नी सीता उसके पास आकर बोली, ‘‘आज ही वापस जाओगे क्या।’’ ‘‘हाँ।’’ ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।’’ ‘‘यहाँ अम्मा-बापू की देखभाल कौन करेगा?’’ ‘‘तुम्हें ले जाने का मन न हो, तो मत ले जाओ। मैं अपनी माँ को पत्र लिखे दे रही हूँ। वह रमेश को भेज देंगी। उसी के साथ मैं चली जाऊँगी लेकिन अब यहाँ नहीं रहूँगी।’’

राम कुछ देर मौन सोचने लगा। कैसे वह बताये कि उसका मन भी उसे छोड़ने का नहीं करता। उसे क्या अच्छा लगता है कि वह अकेले रहे। पड़ोस के मिश्रा जी उसी के साथ काम करते हैं। एक दिन मजाक में कह भी दिया था, ‘‘भाई कब तक होटल की रोटियाँ तोड़ते रहोगे? भाभी को बुला क्यों नहीं लाते?’’

उस समय भी वह चुप हो गया था और आज इस समय भी चुप हो गया है। अपनी मजबूरी कैसे समझाये। बोला, ‘‘तुम चलोगी, तो अम्मा-बापू की सेवा कैसे होगी?’’ पत्नी के मन में खीझ और क्रोध था। पति की बात सुनते ही भभक पड़ी, ‘‘तुम्हीं बैठकर करो सेवा।’’

कुछ देर तक तो राम सोच ही नहीं पाया कि क्या कहे। सामान्य हुआ तो, कहा, ‘‘बेकार में गुस्सा क्यों हो रही हो। तुम्हीं सोचो, लोग क्या कहेंगे? यही कि अपने आराम के लिए बूढे माँ-बाप को अकेले छोड़कर बीबी को लेकर चलता बना।’’

क्रोध में अच्छी बात भी बुरी लगती है। सीता को पति की सलाह बिल्कुल ही न भायी। बोली, ‘‘लोग क्या कहेंगे इसकी चिन्ता तुम करो। मैं क्यों करूँ?’’

‘‘आखिर बात क्या है ?’’ ‘‘दिनभर काम करो। ऊपर से सौ बात सुनो। अब यह मुझसे नहीं हो सकता।’’ ‘‘अरे भाई! माँ-बाप हैं। कुछ कह ही दिया तो कौन-सी बात हो गयी।’’ ‘‘खाली कहेंगे ही कि यह भी देखेंगे कि मैं मर रही हूँ कि जी रही हूँ।’’ ‘‘आखिर तुम्हें हो क्या गया है, जो यह सब कह रही हो।’’ पुरुषत्व दिखाते हुए वह बोला।

‘‘तुम्हारे आने के चार-दिन पहले ही की तो बात है। तबियत खराब थी। आराम करने लगी तो अम्मा जी कहने लगीं, ‘‘बहू दिन भर लेटी ही रहोगी कि कुछ घर का काम….।’’ बीच में ही राम बोल पड़ा, ‘‘तो इसमें कौन सी बड़ी बात हो गयी? तुम कह देती कि तबियत खराब है। फिर कौन था, जो तुम्हें कुछ कहता।’’

‘‘उन्हें नहीं समझना था कि तबियत खराब है इसलिए लेटी है।’’ स्थिति को स्पष्ट करते हुए पुनः बोली, ‘‘तबियत ठीक रहती है, तो मैं स्वयं ही मजदूरिन की तरह काम में जुटी रहती हूँ।’’ ‘‘उन्हें कोई सपना आ रहा था कि तुम्हारी तबियत ठीक है कि नहीं।’’ माँ-बाप की पक्षधरता करते हुए राम ने कहा।

लेकिन सीता ने तो जैसे निश्चय ही कर लिया था कि वह अब नहीं रहेगी। इसलिए बोली, ‘‘ठीक है, उन्हें सपना आये या न आये। मैं कह चुकी हूँ कि अब यहाँ एक पल भी नहीं रह सकती।’’ कहकर वहाँ से चली गयी।

राम स्थिति की गम्भीरता को समझ तो गया, लेकिन इस तरह की समस्या को हल करने का उसे कोई अनुभव न था, इसलिए पिता के पास सलाह लेने के लिए चल पड़ा। कमरे से बाहर निकला ही था आँगन में वह दिखाई पड़ गये। वह कुछ बोलता कि उसे देखते ही दशरथ ने कहा, ‘‘बेटा राम! आज तो वापस जाओगे न ?’’ ‘‘हाँ बापू!’’ ‘‘बेटा, सुन्दर के यहाँ से देशी घी लाया हूँ। लेते जाना। शहर के होटल में कहाँ शुद्ध मिलता होगा।’’ ‘‘अच्छा बापू! ’’ उसकी आवाज में पहले जैसा उत्साह नहीं था। दशरथ के बूढ़े कानों ने पहचान लिया। पूछा, ‘‘बेटा, तबियत तो ठीक है न।’’ ‘‘ठीक है।’’

‘‘फिर सुस्त क्यों नज़र आ रहे हो?’’ सच्चाई जानने के लिए दशरथ जिज्ञासु हो उठे। वह कुछ पल के लिए चुप रहा, फिर वह बोला, ‘‘बापू! आपसे एक बात कहनी थी।’’ ‘‘बोलो! क्या कहना है?’’

बात को सीधे न कहकर बोला, ‘‘बापू! आप और अम्मा भी साथ चलते, तो अच्छा रहता। जगह भी बदल जाती और…और वहाँ आप अपने को किसी अच्छे डॉक्टर से दिखा लेते, तो दवा भी हो जाती।’’ ‘‘यह सब तो ठीक है लेकिन घर-बैल छोड़कर जाना ठीक नहीं।’’
‘‘बैल चौधरी को सहेज दें। वही खेत भी बटाई पर जोत लेंगे। रही बात घर की, तो इसके लिये शान्ति बुआ से कह दें। बेचारी अकेली ही तो हैं। यहीं आकर रहेंगी।’’ ‘‘बेटा, तुम कह तो रहे हो, लेकिन मन मान नहीं रहा है। कैसे, किसी के सहारे सब कुछ छोड़ दूँ? फिर तो लौटकर यहीं आना होगा।’’

‘‘जब आना होगा तो आइयेगा। अभी से क्यों इतना चिन्तित हैं?’’ राम ने सलाह दी। अपनी धरती का मोह बहुत ज्यादा होता है। दशरथ बचपन से ही जिस माटी में खेला खाया, उसे कैसे इतनी जल्दी छोड़कर शहर हवा बदलने चला जाये। बेटे की बातों से असहमति ज़ाहिर करते हुए बोले, ‘‘बेटे, तुम कुछ भी कहो, लेकिन पता नहीं क्यों मेरा मन गाँव छोड़ने को नहीं कर रहा है।’’ इतना कहकर कुछ सोचने लगे… आज राम को क्या हो गया है जो मुझे शहर ले जाने के लिए इतना बेचैन है।

उन्हें समझते देर न लगी। तभी तो कहा, ‘‘बेटे, हम लोगों को कहाँ ले जाओगे। शहर में तुम्हें भी परेशानी होगी और हम लोगों को भी। तुम तो जानते ही हो हमें खुली हवा में सोने की आदत है। वह शहर में कहाँ मिलेगी… रही बात तुम्हारी अम्मा की, तो उनका मन बंद कमरे में तो और न लगेगा। चार दिन रहेंगी कि कहने लगेंगी कहाँ कैदखाने में ले आये हो। उनका तो मन जब तक चार घर घूम न आयें लगता नहीं। खाना नहीं पचता।’’ फिर अपनी सलाह देते हुए बोले, ‘‘मेरी बात मानो तो बहू को ही साथ लेते जाओ। बेचारी जब से इस घर में आयी है, न कहीं आना न कहीं जाना। इसीलिए इधर कुछ दिनों से उसकी तबियत भी खराब रहती है। तुम्हारे साथ जायेगी, तो मन भी बदल जायेगा, और खाने को भी आराम हो जायेगा। अभी तो होटल में ही खाते हो। इसीलिए तुम्हारी सेहत भी ठीक नहीं है।’’

मूल समस्या तो राम की यही थी जिसे उसके पिता ने हल कर दिया। फिर भी अपनी सहमति तुरन्त देकर उनकी नज़रों में छोटा नहीं होना चाहता था। इसीलिए बोला, ‘‘लेकिन आप लोग यहाँ अकेले कैसे रहेंगे?… आपकी तो कोई बात नहीं, अम्मा इस उम्र में घर का काम कैसे कर पायेंगी?’’
‘‘बेटे इसकी चिन्ता तुम क्यों करते हो? कौन काम ही है। दो जनों का खाना ही तो बनाना है। बहू के पहले तो बनाती ही थीं। फिर बना लेंगी।’’

शायद परिस्थिति बदल न जाये, इसीलिए बात को अधिक न बढ़ाकर अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए राम ने कहा, ‘‘आप जैसा कहें, ठीक हैं।… लेकिन आप लोगों को अकेला छोड़कर उसे ले जाना अच्छा नहीं लग रहा है।’’ ‘‘तुम बेकार की चिन्ता मत करो। यहाँ सब ठीक हो जायेगा।’’ फिर सलाह देते हुए बोले, ‘‘हाँ सुन्दर के यहाँ से जो घी लाया हूँ, उसकी पूड़ियाँ बनवा लो।…. पहुँचते ही कहाँ हो जायेगा खाने का प्रबन्ध।’’

‘‘अच्छा बापू।’’ बुझे मन से राम ने कहा। ‘‘और सुनो, कुछ बर्तन भी तो चाहिए। जाते ही कहाँ से खरीदोगे। …अभी तो तनख्वाह
मिलने में भी दस दिन हैं। …न हो तो अम्मा से कहकर बहू के यहाँ से जो बर्तन आये थे, उन्हीं में से ले लो। बेकार ही तो बक्स में पड़े हैं।’’ ‘‘ठीक है।’’ इससे अधिक न कह सका वह और वहाँ से चला गया। पत्नी को जाकर तैयारी
करने को कहा।

उधर राम की माँ शान्ति बुआ के यहाँ से लौट आयी थी। उनकी आवाज़ सुनायी पड़ी तो दशरथ ने कहा, ‘‘रामू की अम्मा, इधर सुनना तो।’’ ‘‘अभी आयी। दाना रख दूँ।’’ दाना रखकर जब पति के पास गयी तो उन्होंने सब बातें बता दीं। पति की बातों को सुनकर वह कुछ न बोलीं। उन्हें लगा, कहीं से धरती खिसक गई है, क्योंकि इसकी तो उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी।

उधर बहू को जाने का उत्साह था। उसे लग रहा था, जैसे आज कैद से छूट रही हो इसलिए दौड़-दोड़कर सभी काम कर रही थी। जाने की खुशी में अम्मा-बापू के सभी कपड़े साफ कर डाले जिससे उन्हें तकलीफ न हो। जिसे भी जरूरत समझती उसे ही कर डालती। काम समाप्त हो गया, तो आटा गूंथकर पूड़ियाँ बनाने लगीं। सास तब तक वहाँ पहुँचकर बोलीं, ‘‘लाओ बहू, मैं पूड़ियाँ बना
देती हूँ। तब तक तुम जाकर सामान ठीक कर लो। शान्ति के यहाँ से दाना भुना लायी हूँ। उसे भी बाँध लेना। राम को बहुत पसन्द है।’’

अब तक तो जाने की खुशी में बहू तेजी से काम कर रही थी लेकिन सास के आ जाने से बुझी-बुझी सी लग रही थी। पहले जाने की खुशी थी, तो अब बिछुड़ने का ग़म था। आँखों से आँसू बह चले। आँचल में छुपाकर बोलीं, ‘‘आप रहने दीजिये। मैं बना लूँगी। …अभी तो जाने में देरी है।’’अब तक तो जाने की खुशी में बहू तेजी से काम कर रही थी लेकिन सास के आ जाने से बुझी-बुझी सी लग रही थी। पहले जाने की खुशी थी, तो अब बिछुड़ने का ग़म था। आँखों से आँसू बह चले। आँचल में छुपाकर बोलीं, ‘‘आप रहने दीजिये। मैं बना लूँगी। …अभी तो जाने में देरी है।’’

और दिन होता तो सास शायद मुखर भी होती मगर आज कुछ अधिक गंभीर हो गयी थीं… सजल आँखों को छिपाये हुए उठकर कमरे से चली गयी। सीता सभी सामान ठीक करके फिर सास के पास गयी तो देखा कि वह खाट पर बिना बिस्तर के ही लेटी है। पास जाकर पूछा, ‘‘सिर दर्द कर रहा है क्या? लाइए दबा दूँ।’’ ‘‘नहीं बहू, ऐसे ही लेट गयी थी।’’

सास के नहीं कहने पर भी वह सिर दबाने लगी। सिर दबाते हुए सलाह देने के लहजे में कहा, ‘‘ठंडा तेल आपके लिए मंगवा दिया है। उसे ही लगाया कीजियेगा।’’ पुनः सहानुभूति जताते हुए बोली, ‘‘आप अधिक काम मत करियेगा। कोई काम होगा तो शान्ति बुआ को बुला लीजिएगा। …वह तो कर ही देंगी… मेरा मन आपको छोड़कर जाने को नहीं कर रहा है, लेकिन क्या करूँ…।’’

‘‘बहू, तुम मेरी चिन्ता मत करना। अपना…ख्याल रखना।’’ अस्पष्ट आवाज़ में सास ने सलाह दी। जब जाने का समय हो गया तो राम ही आकर बोला, ‘‘चलना नहीं है क्या? समय हो रहा है। अभी तक तैयार नहीं हुई? चार वाली बस छूट जायेगी, तो फिर सात बजे की ही मिलेगी। फिर तो गाड़ी भी नहीं मिलेगी। रात भर स्टेशन पर ही पड़ा रहना होगा।’’

सीता कुछ न बोली। चुपचाप उठकर तैयार होने चली गयी। राम सभी सामान निकालकर द्वार पर रखने लगा। दशरथ भी जाकर भरोसे के बेटे को बुला लाये। भरोसे का परिवार सदैव इनका सहायक रहा है। जब भी किसी आदमी की जरूरत पड़ती, भरोसे का सारा परिवार खड़ा हो जाता। दशरथ का सारा परिवार भी उसको सामर्थ्य के अनुसार कभी पैसे से तो कभी अनाज से मदद करता रहता।

सामान निकालकर जब राम, सीता को बुलाने अन्दर चला गया, तो दशरथ ने सामान को भरोसे के बेटे के सिर पर रख दिया। जो बच गया, उसे अपने हाथ में लेकर तैयार हो गये। बहू को विदा करने के लिए राम की माँ पार्वती लोटे में जल लेकर आयी। सीता आकर
सास के पास खड़ी हो गयी तो लगा कुछ पल के लिए सभी की गति ही रुक गयी और वाणी गूंगी। सभी एक जगह यंत्रवत खड़े रहे तो दशरथ ने ही कहा, ‘‘बेटा देरी मत करो। बस छूट जायेगी तो तुम लोगों को परेशानी होगी।’’

ससुर के मुख से बात निकलते ही सीता के हाथ सास के चरण स्पर्श करने के लिए बढ़ गये। हाथ अभी चरण छू नहीं पाये थे कि आँखों के आँसू बहकर चरण धोने लगे। पार्वती भी अपने अन्दर उठे तूफान को रोक न सकी। वह भी सिसकने लगी।

सब रुक सकता है, लेकिन समय की गति कब रुकी है। जो इस समय रुक जाती। उसे क्या लेना-देना माया के जंजाल से इसलिए वह बढ़ने लगी तो सीता को भी बढ़ना पड़ा। कुछ दूर तक सभी गये। फिर पार्वती की सीमा ने उसे आगे जाने से रोक दिया। वह रुक
गयी। शेष चलते रहे। कुछ दूर और गये थे कि राम, पिता से बोला, ‘‘बापू! सामान हमें दे दो।… बेकार में आप कहाँ तक परेशान होंगे… हम लोग चले जायेंगे।’’

बेटा यह कह सकता है कि बेकार में आप कहाँ तक परेशान होंगे, बाप नहीं। उसका तो बस चलता, तो शायद कभी आँखों के सामने से ओझल न होने देता। तभी तो कहा, ‘‘परेशानी क्या है? तुम लोगों को बस पर चढ़ाकर वहीं से रतन चौधरी के यहाँ चला जाऊँगा। उनसे बात करनी है बैल के लिए। सोचता हूँ पानी बरसे तो खेत जोतकर मकई बो दूँ।’’

चौधरी की बात तो अचानक ही उठ आयी थी, यह दशरथ अच्छी तरह समझते थे। सामान को अपनी देखरेख में बस पर लदवाकर, गोपाल साह की दुकान की ओर चले गये। वहाँ से एक किलो मिठाई लाकर बेटे के हाथ में थमाकर कहा, ‘‘इसे बहू को दे दो। ठीक से रख लें।’’ मिठाई लेते हुए राम ने कहा, ‘‘इसकी क्या जरूरत थी। बेकार में आपने पैसे खर्च कर दिये। पड़े रहते तो आपके कोई काम आते।’’

दशरथ नौकरी पर कभी बाहर नहीं गये थे, तो इसके माने यह तो नहीं था कि उन्हें यह भी नहीं मालूम कि लोग वहाँ जब राम को बहू के साथ देखेंगे, तो क्या कहेंगे? बोले, ‘‘वहाँ जाओगे, तो तुम्हारे यार दोस्त मिलने आयेंगे ही। वह पूँछेंगे नहीं गाँव से आये हो, तो क्या लाये हो।’’ दशरथ जानते थे कि शहर में मिठाई इफरात के साथ मिलती है फिर भी मिठाई ले आये क्योंकि पुत्र के प्रति अपने स्नेह को किसी न किसी रूप में अधिकाधिक प्रकट करने को मन उफन रहा था उनका।

बस ने हार्न दिया। सभी सवारियाँ जो इधर-उधर बैठीं थीं, उठ-उठ कर अपनी सीटों पर आकर बैठ गयीं। राम भी पिता के चरण स्पर्श कर अपनी सीट पर आकर बैठ गया। सीट खिड़की के पास की थी। सिर बाहर निकाल कर पिता से बात करने लगा, ‘‘आप अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखियेगा। हमने सुन्दर से कह दिया है कि वह दूध देना बंद न करे। …पैसे के लिए आप बिल्कुल चिन्ता मत करियेगा। तनख्वाह मिलते ही मनीआर्डर कर दिया करूँगा।’’ कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा उठीं। रुंधे कंठ से कहा, ‘‘कोई बात हो तो मुझे खबर दीजिएगा।’’

बस के छूटने का समय हो गया था। पुनः हार्न बजा। साथ ही कन्डक्टर ने सीटी बजा दी। बस चल दी। चलती रही। लेकिन दशरथ पत्थर की मूर्ति के समान खड़े रहे, वहीं जहाँ खड़े थे। पर आँखें चलती रही बस के साथ-साथ। तब तक चलती रहीं जब तक उसे दूरियों ने अपने में समेट नहीं लिया।

संपर्क: 136, मयुर रेजीडेंसी, फरीदनगर, लखनऊ
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