विशुद्ध स्वर रचनात्मक बदलाव का साक्षी

मीमांसा

अमनदीप वशिष्ठ

वैष्णव चिंतन में आलोचनात्मक विवेक

कुछ दिन पहले नारद भक्ति सूत्र से गुजरते हुए एक सूत्र मिला। उसका अर्थ था कि वाद का अवलंबन नहीं करना चाहिए। अगले सूत्र में उसका कारण बताया गया। वह यह कि वाद में ‘बाहुल्य’ का अवकाश होता है। बाहुल्य के मायने बहुत तरह की बातों का अवकाश होता है। यानी कोई ‘वाद’ में पड़ जाए तो उसका अंत नहीं होता। सामान्य भाषा में कहें तो बहस का कभी कोई नतीजा नहीं निकलता। बरास्ते अकबर इलाहबादी उर्दू काव्य में इसे कहा गया कि ‘फलसफी को बहस के अंदर खुदा मिलता नहीं!’ कमोबेश सारा भक्ति काव्य इस तरह के वक्तव्यों से भरा है कि पोथीज्ञान अथवा बौद्धिक मीमांसा अंततः कहीं नहीं ले जाती। ये बात शास्त्रीय वैष्णव सम्प्रदायों और बाद के जनपदीय भाषाओं पर आधरित सम्प्रदायों में भी बारम्बार झलकती रहती है। अब हमारे सामने प्रश्न यह है कि इस सबके बीच ‘आलोचनात्मक विवेक’ की क्या स्थिति है। क्या वह विवेक ‘बौद्धिक मीमांसा’ से इतर कोई तत्त्व है। या फिर उसे किसी तरह के पोथीज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं रहती!

मैं जब पहली दफे वृन्दावन गया तो गोदा विहार स्थित संस्थान की पहली स्मृति यह है कि वहाँ बेशुमार ग्रंथों का संग्रह था। बड़े भाई आचार्य लक्ष्मीनारायण जी ने बड़े भाव के साथ वे सब ‘पोथियाँ’ मुझे दिखायीं जो वैष्णव परम्परा की धरोहर थीं। उन पांडुलिपियों को देखते हुए मैं विस्मय से भरा रहा। उन्हें समझने का सामर्थ्य मेरे भीतर भले न रहा हो लेकिन इतना जरूर देख पा रहा था कि इस देश में ज्ञान को कैसे संरक्षित किया जाता है। क्या मैं उन पांडुलिपियों को सीधे पढ़ सकता था? नहीं। उनके अक्षर और उनकी बुनावट को समझने के लिए एक गहरी बौद्धिक तैयारी चाहिए थी, जो मेरे पास नहीं थी। मेरे मन में रह रह कर कबीर का ‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ’ गूँज जाता है। उनका कहना है कि पोथी पढ़ने से कोई पंडित नहीं बनता। हो सकता है उनके वक्त में यह सही बात रही हो। पर अब तो यह बात परिप्रेक्ष्यविहीन हो गयी है। यह बात उस दौर की है जब लोग पोथी पढ़ते थे। आज भला कौन पोथी को पढ़ने का श्रम करेगा। अतः कबीर की वो बात उस परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक थी जबकि कोई व्यक्ति पोथी पढता था। आज तो वो ‘जग’ शॉपिंग मॉल्स के उस सुगंधित एयर कंडीशनर विस्तार में रहता है जहाँ धीमा-धीमा संगीत उसे किसी दूसरे ही लोक में ले जाता है। पश्चिम के मनीषियों का कहना है कि ये शॉपिंग मॉल्स का जगत किसी जादुई दुनिया सरीखा होता है। उसमें कैसा पोथीज्ञान और कैसी कोई बौद्धिक मीमांसा! अतः आधुनिक लोक ने एक नयी आध्यात्मिक राह पकड़ी। वह है ‘यहीं और अब’ हियर एन्ड नाऊ! वर्तमानता का आध्यात्मिक उद्घोष। न कुछ पहले था न कुछ और आगे होगा। जो भी है बस ‘अभी और यहीं’ है। यह विचार भले नया लगे लेकिन इसका आधार जेन बौद्ध दर्शन में खोजा गया। चमचमाते शॉपिंग मॉल्स में जब मैं जाता तो मैं कुछ समय मित्रों के साथ उत्सव की मादकता में झूमता पुस्तकों की दुकानों का रुख करता। वहां ऐसी पुस्तकों का दर्शन होता जिनका लब्बोलुआब था- मौजूद क्षण को भरपूर जी लेना। ‘प्रेजेंट मोमेंट’ पर इतना अधिक बल देना कुछ-कुछ समझ आता है। मध्यकालीन जेन बौद्ध दर्शन में उसका जो भी अर्थ रहा हो, लेकिन आज के औद्योगिक जगत में रमे पच्चीस तीस साल के युवा के लिए वह एक तरह की गहरी औषधि है। वह उचित भी है। लेकिन मेरे लिए वही प्रश्न घूम फिरकर लौट आता। वह यह कि इस सबमें आलोचनात्मक विवेक का क्या स्थान है!

मेरे लिए मनोवैज्ञानिक बौद्धिक फ्रेम था वैष्णव चिंतन। जिसमें मैं जीता था और सुकून पाता। ऐसा तो था नहीं कि मुझे कोई दिव्य अनुभव हो गया हो और मेरी समस्त जिज्ञासाएँ शून्य में तिरोहित हो गयीं हों। लेकिन फिर भी मुझे उसमें एक सुकून मिलता। इसलिए कि उसमें एक ठहराव था और आक्रामकता नहीं थीं। दूसरी परम्पराओं के घोर तत्त्व मुझे भयभीत कर देते। मुझे किसी ऐसी धारा में आश्रय चाहिए थे जिसमें सौंदर्य हो तथा प्रशांत भाव के साथ स्थिरता भी हो। वह मुझे वैष्णव चिंतन में मिला। लेकिन मैं ‘आलोचनात्मक विवेक’ का निलंबन यानी सस्पेन्शन नहीं चाहता था। कोई चामत्कारिता से भरा ऐसा आख्यान नहीं जिसमें प्रश्न पूछने की जगह ही न हो। मेरे सामने प्रश्न यह था कि वैष्णव भक्ति में जो भाव है, क्या वह अनिवार्यतया किसी तरह की बौद्धिक मीमांसा का निषेध करता है? पीछे मुड़कर देखने पर पता चला कि काशी तथा बंगाल में ऐसे-ऐसे वैष्णव पंडित हुए हैं जिनका तर्कबद्ध मीमांसा में कोई सानी नहीं। मशहूर नैयायिक रघुनाथ शिरोमणि के वरिष्ठ आचार्य वासुदेव सार्वभौम बाद में वैष्णव हो गए। उनकी तर्कबद्धता भाव के भीतर सहज भाव से विलीन हुई अथवा उसका निषेध हो गया ये विचारणीय है। न्याय तथा वेदांत के प्रसिद्ध आचार्य मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतरत्नरक्षण तथा अद्वैतसिद्धि जैसे तर्कप्रबल ग्रंथों के साथ-साथ आनन्दमन्दाकिनी एवं कृष्णकुतूहल जैसी रसमय कृतियाँ भी दीं। इनके अलावा और भी न जाने कितने ही वैष्णव पंडितों के नाम लिए जा सकते हैं। उन वैष्णव पंडितों का जीवन एक तरफ रस में डूबा हुआ था तो दूसरी ओर जरूरत पड़ने पर वे घनघोर तर्कणा में भी प्रवृत्त हो सकते थे। एक उदाहरण याद आता है। पंडित बलदेव उपाध्याय जी की काशी की पांडित्य परम्परा के पन्ने उलटते हुए उसे देखा था। मूलतः अलवर के रहने वाले पंडित राममिश्र शास्त्री ने अपनी जीवन काशी में व्यतीत किया। वे श्रीसम्प्रदाय के पंडित थे। स्वाभाविक है कि उनका झुकाव विशिष्टाद्वैत की तरफ था जो रामानुज सम्प्रदाय का दार्शनिक सिद्धांत है। वे एक ओर जहाँ वैष्णव तत्त्व का गहन अनुशीलन करते थे तो वहीं जरूरत पड़ने पर उनके द्वारा तर्क और युक्ति का भी सशक्त प्रयोग होता। एक जगह पंडित मिश्र जी ने भिन्न-भिन्न देवताओं के उदाहरण देते हुए लिखा है कि जिस तरह उन उन देवताओं के आयुध धारण करने पर विपक्ष में कोई नहीं बचता ठीक उसी तरह मेरी युक्तियों के समक्ष विपक्ष टिक नहीं सकता। ‘युक्तिक्रमं मयि च कुत्र विपक्षशेषः!’ यह आत्मविश्वास सहेजने योग्य है। इन्ही के शिष्य पंडित रामशास्त्री भागवताचार्य श्रीवैष्णव सदाचार के प्रतीकरूप रहे। शास्त्रार्थ में उनकी भी पर्याप्त रुचि थी। एक ओर श्रीवैष्णव ग्रंथों का रसपूर्ण विवेचन प्रकाशन तो दूसरी ओर न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन। अब हमारे सामने यह प्रश्न है कि यदि वैष्णव परम्परा में पांडित्य-तर्क-विवेचन आदि का पर्याप्त स्थान रहा है तो फिर संत धारा ने इसे दोयम कैसे माना।

वृन्दावन की वह घटना जिसमें जीव गोस्वामी के शास्त्रार्थ में प्रवृत्त होने पर उनके वरिष्ठजन नाराज हो गए थे, सो अभी तक सुनाई जाती है। तब कारण यह गिनाया गया कि साधक को शास्त्रार्थ सरीखे कार्यों से दूर रहना चाहिए। होता यह है कि शास्त्रार्थ में अमूमन सिद्धांत की प्रतिष्ठा के बहाने व्यक्ति स्वयं को ही प्रतिष्ठित करता है। मेरा अपना निजी अनुभव भी इसके नजदीक है। मुझे याद है कि विद्यार्थी जीवन और उसके बाद भी मैं अधिकांश अध्ययन इसलिए करता कि सभाओं में होने वाली बहसों में मुझे प्रतिष्ठा मिले। यदि दो व्यक्ति भी आकर यह कह देते कि आपका अध्ययन बहुत गहन है, तो मन प्रसन्न हो जाता। अतः बाहर से कोई व्यक्ति यह नहीं जान सकता था कि विषय पर चर्चा के रास्ते मैं दरअसल अपने भीतरी खालीपन को भर रहा  था। वह बात तो केवल मुझे ही पता थी। यदि कभी ऐसा होता कि मेरी जगह किसी दूसरे व्यक्ति को प्रशंसा मिलती तो मेरा मन ईर्ष्या से खिन्न हो उठता। कुल मिलाकर मेरा अपना अनुभव यही है कि ज्यादातर अध्ययन का प्रयोग मैं अपने अहंभाव को हवा देने हेतु ही करता रहा। लेकिन क्या कोई कोना ऐसा भी था जब मैं एकांत में था और किसी जटिल गुत्थी को सिर्फ अपने लिए ही सुलझा रहा था। उस समय जो ‘आलोचनात्मक विवेक’ काम कर रहा था क्या उसका भी साधना से कोई विरोध है! मेरे विचार से जब हम अपने निज में डूबे हुए ‘क्रिटिकल स्क्रूटिनी’ करते हैं तो उसका भावजगत से कोई अनिवार्य विरोध नहीं होता।

कभी-कभी ऐसा हुआ है कि वैष्णव परम्पराओं को कुछ समस्याओं से दो-चार होना पड़ा। मसलन चौतन्य सम्प्रदाय में मध्वाचार्य की परम्परा से संबंध को आंतरिक विमर्श चला। तो उनके मध्वानुगत्य के प्रश्न को लेकर पक्ष विपक्ष में अनेकानेक कार्य लिखे गए। वृन्दावन में ही राधासुधानिधि के रचनाकार पर बहुत बातचीत होती रही है, जिसमें पर्याप्त मतवैभिन्न्य रहा है। हरिदासी परम्परा के भीतर विरक्त धारा तथा गोस्वामी धारा के बीच कुछेक विषयों पर मतैक्य नहीं है। रामानंदी तथा रामानुजी परम्परा के बीच सूक्ष्म सैद्धांतिक अंतर है। यह तो भीतरी पक्षों के कुछेक उदाहरण हैं। यदि वैष्णवेतर परम्पराओं के साथ चली बहसों का लेखा-जोखा लिया जाए तो सूची बहुत लम्बी की जा सकती है। अब फिर से निर्णय की प्रक्रिया का प्रश्न खड़ा हो जाएगा। सम्प्रदायनिष्ठा से अनुशासित एक साधक क्या इन प्रश्नों की उपेक्षा करेगा? या वह साधक एक अपनी परम्परा के निष्ठावान सिपाही की तरह केवल अपने पक्ष का ही समर्थन करेगा? क्या कोई ऐसी स्थिति भी बन सकती है, जिसमें कोई साधक अपने सम्प्रदाय की साधना पद्धति के प्रति अनन्यभाव से समर्पित होता हुआ भी किसी ऐतिहासिक प्रश्न पर दूसरे सम्प्रदाय को सही माने! मुझ जैसे व्यक्ति के लिए सैद्धांतिक मसलों पर निष्पक्षता की अवस्थिति बहुत आसान होती है, चूंकि मैं एक जगह दीक्षित नहीं हूँ। लेकिन ये आसानी एक तरह का साधनाबाह्य मामला है। साधना के लिए मुझे एक सम्प्रदाय के भीतर जाना ही होगा। तब उस सम्प्रदाय के साथ मेरा रिश्ता भावावेश से युक्त होगा। तब मेरे लिए अपने सम्प्रदाय की सैद्धांतिक पोजीशन का उल्लंघन मनोवैज्ञानिक उलझाव से भरा होगा। ऐसा नहीं है कि कोई अन्य व्यक्ति आकर कुछ कहेगा। व्यावहारिक स्तर पर वैष्णवों में प्रचुर औदार्य है। अलग अलग सम्प्रदायों के विद्वान बहुत मिठास के साथ आपस में मिलते रहे हैं और वैचारिक असहमति का आदर भी है। अतः कोई कुछ न भी कहे, तो भी मेरे चित्त के भीतर एक कचोट चलती रहेगी कि मैंने अपने सम्प्रदाय के साथ वफा नहीं की। इस सारी परिस्थिति को संतजन और पंडितजन अलग अलग तरह से देखते रहे हैं। साम्प्रदायिक द्वंद्व भी यहाँ बहुत अलग तरह का है।

वैष्णव सम्प्रदायों के भीतर एक दूसरे के आचार्यों के प्रति गहरा मान-सम्मान रहा है। एक बात किसी भी विद्यार्थी को तुरंत समझ आ जाती है। वह यह कि कितना भी विवाद क्यों न हो, एक परम्परा दूसरी परम्परा के आचार्य के प्रति श्रद्धा में कमी नहीं आने देती। इस पूरी प्रक्रिया का सबसे गहन प्रतिफलन श्रद्धेय नाभाजी के भक्तमाल में हुआ। यों कहें कि नाभाजी के कृतित्व में ‘आलोचनात्मक विवेक’ ने ऐसा स्वरूप ग्रहण किया जिसमें न्यायशास्त्र का विवेक अपने रसावतार में उतर आया। सारी भिन्नताएँ भक्ति के महासमुद्र में एकमेक हो गयीं। पश्चिमी चिंतन जिसे ‘कॉस्मोपॉलिटन’ कहता है उसके दर्शन हमें इस कृति में हुए।

मेरे निजी विचार से वैष्णव-भाव निरी भावुकता नहीं था। उसमें एक स्थैर्य तथा शांतभाव हमेशा था। शास्त्रीय लिहाज से वैष्णव भाव का मूल स्रोत भगवान श्रीविष्णु हैं, जो स्थैर्य तथा रस का पुंज हैं। उनके परशुरामजी, वराहजी तथा नृसिंहजी के रूप में हुए अवतार लोकमानस हेतु निस्संदेह युद्धभाव का प्ररूपण करते हैं। परन्तु मुझे वैष्णवभाव मूलतः सात्विक शांत रस के निकट मालूम होता है। अतः यहाँ नव्य-न्याय का तर्क रस में विलीन हो जाता है। यह केवल कहने भर की बात नहीं है। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण भी मौजूद रहे हैं। आधुनिक काल में भी चैतन्य सम्प्रदाय के प्रकांड विद्वान पंडित दामोदरलाल गोस्वामीजी ने नवद्वीप में रहकर नैयायिक पंडित यदुनाथ न्यायसार्वभौम से नव्य-न्याय पढ़ा। साथ ही दूसरी ओर भक्तिरसायन और हरिभक्तिरसामृतसिंधु सरीखे प्रतिष्ठित भक्तिपरक ग्रंथों पर परिश्रमपूर्वक कार्य द्वारा नूतन संस्करण प्रकाशित किये। पंडित श्रीरंगाचार्य जी ने दुर्जनमुखचपेटिका, दुर्जनकरिपंचानन तथा व्यामोहविद्रावण जैसे शास्त्रार्थपरक ग्रंथों का प्रणयन किया तो साथ ही तमिल भाषा में निबद्ध सहस्रगीति का संस्कृत अनुवाद भी। एक ओर कठोर तर्क तो दूसरी तरफ भावों से भरी रसधार! भारतीय पांडित्य परम्परा पर पंडित बलदेव उपाध्यायजी तथा महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराजजी किये हैं, उनमें ऐसे उदाहरण भरे हुए  हैं। स्थानाभाव से यहाँ तो कुछेक का उल्लेख भर इसलिए कर दिया गया है कि वैष्णव चिंतन में रस तथा तर्क दो विरोधी तत्त्व नहीं हैं। इतना अवश्य है कि वैष्णवों के यहाँ ‘रस’ प्राथमिक है। तर्क उसका सहायक बनकर आता है। लेकिन केंद्रीय स्थान तो रस तथा भाव का ही है। उसी रस तथा भाव की प्रबलता के चलते भक्तमाल का प्राकट्य सम्भव हुआ। इस भक्तमाल में सगुण तथा निर्गुण दोनों तरह की वैष्णव उपासना को स्थान मिला। नाभाजी ने अपनी सम्प्रदायनिष्ठा को अतिक्रमित किये बगैर एक नई तरह की विमर्शात्मक रसानुभूति रच दी। बरसों पहले जब स्कूल में पढ़ता था, तो अपने कस्बे महम के एक पुस्तकालय में आता-जाता था। छोटे से उस पुस्तकालय में गीताप्रेस का छपा श्रीविष्णु अंक देखने को मिला था। जीवन चाहे कितनी ही अलग-अलग राहों पर निकलता रहा है। लेकिन उस अंक की याद सदा स्मृति में बनी रही है। उस अंक में पहली दफे यह समझा था कि वैष्णवों के पास कितनी विशाल तत्त्वमीमांसा है। उन दिनों पहली बार उस कस्बे में बैठे द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत – द्वैत जैसे शब्दों से परिचित हुआ। इनके अर्थों का तो पता न था लेकिन इन्हें बोलते हुए एक सुखद ध्वनि उभरती। थोड़ी उम्र बढ़ जाने के बाद जानकारों के पास बैठकर मालूम हुआ कि ये महज शब्द नहीं बल्कि वैष्णवों की तत्त्वमीमांसा के आधारस्तम्भ हैं। लेकिन इनकी युक्तियों तथा तर्क के भवन में आधार तो भाव का ही रहता है। भाव तथा तर्क- न्याय का ये अनूठा संगम किसी को भी मंत्रमुग्ध कर दे। विवेक यदि विवेक है, तो उसे संधिस्थल खोजना ही होता है।

वैष्णवों का आलोचनात्मक विवेक बीसवीं सदी के भारत में विविध रूपाकारों में प्रकट हुआ था। गाँधीजी राधाचरण गोस्वामीजी मदनमोहन मालवीयजी हनुमानप्रसाद पोद्दारजी जयदयाल गोयन्दकाजी सरीखी विभूतियों ने भारत के ‘पब्लिक स्फीयर’ को जिस तरह से प्रभावित किया है, वह प्रकारांतर से वैष्णव चिंतन का ही अवदान है। इक्कीसवीं सदी में वैष्णव चिंतन किस तरह का स्वरूप अख्तियार करेगा, उसका मूल्यांकन तो आने वाला समय ही करेगा। फिलवक्त इतना ही कहा जा सकता है कि मेरे जैसे व्यक्तियों की आस उसी से बंधी है। सफर में अचानक किसी मुसाफिर के फोन पर विष्णुसहस्रनाम सुनकर प्रतीत होता है कि मैं वैसे उतना अकेला भी नहीं हूँ।

(लेखक अध्यापन से जुड़े युवा चिंतक हैं)

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