विशुद्ध स्वर रचनात्मक बदलाव का साक्षी
सनातन धारा
निर्मल वर्मा
मेरे लिए भारतीय होने का अर्थ
स्वतंत्रता को मिले पचास वर्ष गुजर गए। मैं क्या सोचता हूँ? लोग पूछते हैं, परिचर्चाएँ होती हैं, जश्न मनाए जाते हैं, लेकिन फिर भी लगता है, जैसे हाथ से कुछ छूट गया है, कोई भरा-पूरा प्रतीक, जिसको हम उस जमीन, जमीन के टुकड़े के साथ सम्पृक्त कर सकें, जिसे देश की संज्ञा दी जाती है; क्या मैं उसे प्यार करता हूँ? क्या जमीन के एक टुकड़े से प्यार किया जा सकता है, जिसका अपना आकाश है, समय है, अतीत है; जहाँ जीते हुए लोग ही नहीं, मृतात्माएँ भी बसती हैं।
देशभक्ति, देशप्रेम… क्या ये सिर्फ थोथे शब्द हैं, जिन्हें हमारे आधुनिक बुद्धिजीवी मुँह पर लाते हुए झिझकते हैं, जैसे वे कोई अपशब्द हों, सिर्फ एक सतही सस्ती भावुकता, और कुछ नहीं? कौन स्वतंत्र हुआ? वे हिकारत से पूछते हैं… गरीब, अमीर, छोटे, बड़े, कौन? और यदि कोई उत्तर में कहे, मैं और तुम नहीं, बल्कि वह, जो हमारे बीच में है, हमें बाँधता हुआ, शताब्दियों से हमें ‘हम’ बनाता हुआ, खुद अदृश्य होते हुए भी हमें एक परिदृश्य में अंकित करता हुआ, क्या है यह? क्या इस अनाम भावना को कोई नाम दिया जा सकता है?
भावनाएँ भी घटनाएँ होती हैं, आत्मा की घटनाएँ जैसा नादीन गॉडीमर ने कहा है। मेरे लिए ‘देशप्रेम’ एक ऐसी ही घटना है। मेरे जीवन में यह घटना कब घटी, कहना असंभव है, किंतु एक बार जन्म लेने के बाद वह एक बेल की तरह फैलती गई। यह एक विचित्र भावना है, जो किसी घटना की प्रतिक्रिया में नहीं जगती, बल्कि स्वयं अपने भीतर उच्छ्वासित होती है। हम उस पर अंगुली नहीं रख सकते, जैसे हम देश को छूकर उसकी समग्रता में नहीं पा सकते, सिवा एटलस के नक्शे पर, किंतु तब बोर्खेस की कहानी की तरह नक्शा उतना बड़ा ही होना चाहिए, जितना बड़ा देश है, उसकी जमीन, पहाड़ों, नदी-नालों के इंच-इंच को अपने में समोता हुआ! नहीं, देश के प्रति यह लगाव न तो इतिहास में अंकित है, न भूगोल की छड़ी से नापा जा सकता है, क्योंकि अंततः वह एक स्मृति है, व्यक्तिगत जीवन से कहीं अधिक विराट और समय की सीमाओं से कहीं अधिक विस्तीर्ण… हमारे समस्त पूर्वजन्मों का पवित्र-स्थल, जहाँ कभी हमारे पूर्वज और पुरखे रहते आए थे। यदि हर भावना एक घटना है, तो ‘देशप्रेम’ एक चिरंतन घटना है, हर पीढ़ी की आत्मा में नए सिरे से घटती हुई।
किंतु वह कोई अमूर्त भावना नहीं; एक कविता की तरह वह किसी ठोस घटना अथवा अनुभव के धुँधले, टीसते, टिमटिमाते बिंदु से उत्पन्न हो सकती है। अपनी बात कहूँ तो मुझे बचपन का वह क्षण याद आता है, जब मैं माँ के साथ ट्रेन में बैठकर जा रहा था। कहाँ जा रहा था, कुछ याद नहीं, सिर्फ इतना याद है कि मैं सो रहा था, अचानक मुझे धड़धड़ाती-सी आवाज सुनाई दी; हमारी ट्रेन पुल पर से गुजर रही थी। माँ ने जल्दी से मेरे हाथ में कुछ पैसे रखे और मुझसे कहा कि मैं उन्हें नीचे फेंक दूँ। नीचे नदी में। नदी? कहाँ थी वह? मैंने पुल के नीचे झाँका, शाम के डूबते
आलोक में एक पीली, डबडबाई-सी रेखा चमक रही थी। पता नहीं, वह कौन-सी नदी थी, गंगा, कावेरी या नर्मदा? मेरी माँ के लिए सब नदियाँ पवित्र थीं।यह मेरे लिए अपने देश ‘भारत’ की पहली छवि थी, जो मेरी स्मृति में टँगी रह गई है वह शाम वह पुल, पुल के परे रेत के ढूह और वह डूबता सूरज और एक अनाम नदी… कहीं से कहीं की ओर जाती हुई! मुझे लगता है कि अपने देश के साथ मेरा प्रेम-प्रसंग यहीं से शुरू हुआ था… उत्पीड़न, उन्मादपूर्वक, कभी-कभी बेहद निराशापूर्ण; किंतु आज मुझे लगता है कि अन्य प्रेम-प्रसंगों की तुलना में वह कितनी छोटी-सी घटना से शुरू हुआ था, माँ का मुझे सोते में हिलाना, दिल की धड़कन, नदी में फेंका हुआ पैसा… बस इतना ही!
बाद के वर्षों में मेरे भीतर यह विश्वास जमता गया कि देशप्रेम यदि ‘आत्मा की घटना’ है, तो वह सिर्फ एक ऐसी संस्कृति में पल्लवित होती है, जहाँ ‘स्पेस’ और ‘स्मृति’ अंतर्गुम्फित हो सकें। मनुष्य और पशु के संबंध की बात तो अलग रही, उन चीजों का परस्पर संबंध भी बहुत गहरा हो, जो ऊपर से अजीवंत दिखाई देते हैं… पत्थर, नदी, पहाड़, पेड़… आपस में किंतु अपने अंतर्संबंधों में वे एक जीवंत पवित्रता का गौरव, एक तरह की धार्मिक संवेदना ग्रहण कर लेते हैं। यह क्या महज संयोग था कि हमारे यहाँ प्रकृति के इन आत्मीय उपकरणों के प्रति लगाव ने ‘देशभक्ति’ की भावना को जन्म दिया, जो राष्ट्र की सेक्युलर और संकीर्ण अवधारणा से बहुत भिन्न था? क्या भारत का कोई ऐसा कोना है, जहाँ रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाओं के प्रतीक मनुष्य को अपने जीवन की अर्थवत्ता पाने में सहायक नहीं होते? यदि एक भूखंड में जीता हुआ व्यक्ति एक ‘रूपक’ में अपने होने का प्रत्यक्षीकरण करता है, तो यह वहीं संभव हो सकता है, जहाँ भूगोल की देह पर संस्कृति के स्मृति-स्थल अंकित रहते हैं। पत्थर को छूते हुए कोई देवता, नदी का स्पर्श करते ही कोई स्मृति, पहाड़ पर चढ़ते हुए किसी पौराणिक यात्रा की अंतर्कथा ऐसे पदचिह्न हैं, जिन पर कदम रखते हुए हम अपनी जीवन-यात्रा को तीर्थ-यात्रा में परिणत कर लेते हैं।
अतीत में देश के प्रति यह भावना अन्य देशों में भी देखी जा सकती थी, जहाँ देश-प्रेम का गहरा संबंध संस्कृति और परंपरा की स्मृति से जुड़ा था। मुझे तारकोवस्की की फिल्म ‘मिरर’ की याद आती है, जिसमें एक पात्र पुश्किन का पत्र अपने एक मित्र को पढ़कर सुनाता है, और उस पत्र में पुश्किन रूस के बारे में जो कुछ अपने उद्गार प्रकट करते हैं, वे एक अजीब तरह का आध्यात्मिक उन्मेष लिए हुए हैं। वह लिखते हैं। ‘‘एक लेखक होने के नाते मुझे कभी-कभी अपने देश के प्रति गहरी झुँझलाहट और कटुता महसूस होती है, लेकिन मैं सौगंध खाकर कहता हूँ कि मैं किसी भी कीमत पर अपना देश किसी और देश से नहीं बदलना चाहूँगा। न ही अपने देश के इतिहास को किसी दूसरे इतिहास में परिणत करना चाहूँगा, जो ईश्वर ने मेरे पूर्वजों के हाथों में दिया था।’’
शब्द पुश्किन के हैं, अपने देश ‘मदर रशिया’ के बारे में, लेकिन उनमें देशभक्ति का एक ऐसा धार्मिक आयाम दिखाई देता है, जिसमें हमें विवेकानंद, श्रीअरविंद और गाँधी की भावनाएँ प्रतिध्वनित होती सुनाई देती हैं, जो उन्होंने समय-समय पर गहरे भावोन्मेष के साथ भारत-भूमि के प्रति प्रकट की थीं। आज के आधुनिक भारतीय धर्मनिरपेक्षीय बुद्धजीवियों को भारत के संदर्भ में ईश्वर और पूर्वजों की स्मृति का उल्लेख करना कितना अजीब जान पड़ता होगा, इसका अनुमान करना कठिन नहीं है। वे लोग तो ‘वंदे मातरम’ जैसे गीत में भी साम्प्रदायिकता सूँघ लेते हैं। सच बात तो यह है कि देशप्रेम की भावना को देश से जुड़ी स्मृतियों और उसके इतिहास की धूल में सनी पीड़ाओं को अलग करते ही इस भावना की गरिमा और पवित्रता नष्ट हो जाती है। वह या तो राष्ट्रवाद के संकीर्ण और कुत्सित पूर्वग्रह में बदल जाती है, अथवा आत्म-घृणा में, दोनों ही एक तस्वीर के दो पहलू हैं।
कोई राष्ट्र जब अपनी सांस्कृतिक जड़ों से उन्मूलित होने लगता है, तो भले ही ऊपर से बहुत सशक्त और स्वस्थ दिखाई दे, भीतर से मुरझाने लगता है। स्वतंत्रता के बाद भारत के सामने यह सबसे दुर्गम चुनौती थी, पाँच हजार वर्ष पुरानी परंपरा से क्या ऐसे ‘राष्ट्र’ का जन्म हो सकता है, जो अपने में ही ‘एक’ होता हुआ भी उन ‘अनेक’ स्रोतों से अपनी संजीवनी शक्ति खींच सके, जिसने भारतीय सभ्यता का रूप-गठन किया था। यह एक ऐसी अद्भुत ‘सिम्फनी’ रचने की परिकल्पना थी, जिसके संगीत में हर छोटे-से-छोटे वाद्य का सुर संयोजित होकर गूँजता था। जिस तरह गाँधी की आँख से कभी ‘आखिरी आदमी’ ओझल नहीं होता था, वैसे ही सभ्यता के अदृश्य कंडक्टर का बेटन ऑरकेस्ट्रा की अंतिम पंक्ति में बैठे वादक को नहीं भूलता था। कोई परंपरा इतनी छोटी, इतनी नगण्य नहीं थी, जिसकी ‘आवाज’ भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा में से जुड़कर अपनी विशिष्ट लय में अनुगुंजित न होती हो। बहुत वर्ष पहले, जब मैंने मध्य प्रदेश के हृद्स्थल में नर्मदा को सहस्र धाराओं में फूटते देखा था, तो मुझे वह भारतीय संस्कृति का सबसे उजला प्रतीक जान पड़ा था।
क्या यह प्रतीक आज कुछ मैला-सा नहीं पड़ गया?
पिछले पचास वर्षों में यदि कोई सबसे दुखदायी घटना हुई है, तो यह कि हमने भारतीय संस्कृति की इस प्रवहमान धारा को धीरे-धीरे सूख जाने दिया। हम भूल गए कि भारत केवल एक राज्य-सत्ता, नेशन स्टेट ही नहीं है, जैसा पश्चिम की अनेक राष्ट्रीय सत्ताएँ हैं, जो अपनी सीमाओं में आबद्ध होकर ही अपनी अस्मिता परिभाषित कर पाते हैं। इसके विपरीत शताब्दियों से हमारे देश की सीमाएँ वे स्वागत-द्वार रहे हैं, जिनके भीतर आते ही उत्पीड़ित और त्रस्त जातियाँ अपने को सुरक्षित पाती रही हैं। सातवीं-आठवीं शती में ईरान पर इस्लामी आक्रमण के बाद पारसियों ने अपना शरण-स्थल भारत में ही ढूँढ़ा था। कौन सोच सकता था कि यूरोप से भागे हुए यहूदियों को सुरक्षा देनेवाले कोचीन के एक हिंदू राजा होंगे, जो न केवल उन्हें सहायता देंगे, बल्कि अपने राज्य में उन्हें अपना प्रार्थना-गृह, सिनागौग बनाने नें मदद करेंगे। हजारों तिब्बती निवासियों और भिक्षुओं का दलाई लामा के साथ भारत में शरण लेने आना तो कोई पुरानी घटना भी नहीं है, जिसे भुलाया जा सके। एक प्राचीन वट-वृक्ष की तरह भारतीय संस्कृति ने अपनी छाया तले सैकड़ों जातियों, जनजातियों, धार्मिक समुदायों को वह पवित्र स्पेस प्रदान की थी, जहाँ वे मुक्त हवा में साँस ले सकें। यह केवल सहिष्णुता की बात नहीं थी, जहाँ ‘अन्य’ को अपने से अलग मानकर उसे सहन किया जाता था, बल्कि इसके पीछे कहीं यह मान्यता काम करती थी कि विभिन्न विश्वासों के बीच सत्य की सत्ता समान रूप से क्रियाशील रहती है, अपने में अखंडित और अपरिवर्तनशील! भारतीय सभ्यता को अपनी यह अनमोल अंतर्दृष्टि स्वयं अपनी आध्यात्मिक परंपरा से प्राप्त हुई थी, जहाँ ‘आत्म’ और ‘अन्य’ के बीच का भेद अविद्या का लक्षण था, सत्य का नहीं।
भारतीय सभ्यता के इस आध्यात्मिक सिद्धांत को अनदेखा करने का ही यह दुष्परिणाम था कि पश्चिमी इतिहासकारो और उनके भारतीय ‘सबाल्टर्न’ अनुयायियों की आँखों में भारत की अपनी कोई सांस्कृतिक इयत्ता नहीं, वह तो सिर्फ कबीलों, जातियों, सम्प्रदायों का महज एक पुंज मात्र है। वे इस बात को भूल जाते हैं कि यदि ऐसा होता, तो भारत की सत्ता और उसके अंतर्गत रहनेवाले सांस्कृतिक समूहों की अस्मिता कब की नष्ट हो गई होती, उसी तरह जैसे अमरीका और ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों के साथ हुआ, जिनकी संस्कृति के आज सिर्फ अवशेष दिखाई देते हैं।
यदि भारत का ‘सभ्यता बोध’ और सांस्कृतिक परंपराएँ आज भी मौजूद हैं, तो उसका मुख्य कारण वह केंद्रीय आध्यात्मिक तत्त्व है, जिसमें इतनी क्षमता और ऊर्जा थी कि इतिहास के निर्मम थपेड़ों के बावजूद वह समस्त प्रभावों को अपने भीतर समाहित कर सका। अंग्रेजी मार्क्सवादी इतिहासकार ई.पी. टॉप्सन के शब्दों में, ‘‘भारत सिर्फ महत्त्वपूर्ण नहीं, दुनिया का शायद सबसे महत्त्वपूर्ण देश है, जिस पर सारी दुनिया का भविष्य निर्भर करता है। भारतीय समाज में दुनिया के विभिन्न दिशाओं से आते प्रभाव एक-दूसरे के साथ मिलते हैं… पूर्व या पश्चिम का ऐसा कोई विचार नहीं, जो भारतीय मनीषा में क्रिया-शील न हो।’’ टॉप्सन के इन शब्दों को पढ़ते हुए मैं सोचने लगा कि भारत में कितने मार्क्सवादी हैं, जिनमें अपने देश के प्रति इस तरह के उद्गार प्रकट करने की ईमानदारी और विनम्रता हो।
देखा जाए तो यह ‘विचार तत्त्व’ ही है, जो हमारे राष्ट्रीय जीवन की विपन्नता और ऐतिहासिक दुर्घटनाओं के बावजूद इस देश को बचाए रखने में सफल हुआ है। देश-विभाजन से बड़ी भीषण दुर्घटना और क्या हो सकती थी? यदि गाँधी जी के लिए यह उनके जीवन का सबसे मर्मांतक घाव था, तो इसलिए कि आज के अनेक राजनेताओं की तरह उनके लिए देश की भौगोलिक अखंडता सिर्फ एक सांविधानिक बात नहीं थी, जहाँ सिर्फ देश की सीमाओं को सुरक्षित रखना महत्त्वपूर्ण हो। इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इन सीमाओं के भीतर शताब्दियों से हमारे पुरखों-पूर्वजों ने एक-दूसरे के साथ अपने अनुभवों, स्मृतियों, स्वप्नों का साँझा किया था, एक जीवित संग्रहालय, जिसमें कला, साहित्य और दर्शन की असाधारण रचनाएँ सृजित हुई थीं। कश्मीर केवल भौगोलिक दृष्टि से भारत का नहीं रहा, बल्कि अल-बरूनी के शब्दों में हिन्दू दर्शन और आध्यात्मिक शोध का यदि काशी के बाद कोई अध्ययन-केंद्र था, तो वह कश्मीर था। शैव-बौद्ध दर्शन और राजतरंगिणी जैसी इतिहास-रचनाओं को क्या कभी हम अपनी पारंपरिक सम्पदा से अलग कर देख सकते हैं? धर्म-परिवर्तन से ही किसी देश का अतीत परिवर्तन नहीं हो जाता। एक देश की पहचान सिर्फ उन लोगों से नहीं बनती, जो आज उसमें जीते हैं, बल्कि उनसे भी बनती है, जो एक समय में जीवित थे और आज उसकी मिट्टी के नीचे दबे हैं। समय के बीतने के साथ भूमि की भौगोलिक सीमाएँ धीरे-धीरे संस्कृति के नक्शे में बदल जाती हैं। एक के खंडित होते ही दूसरे की गरिमा को भी चोट पहुँचती है।
एक अंतिम शब्द, हमें कभी अपने समाज की कुरीतियों, अपने सत्ताधारी नेताओं की स्वार्थ- लिप्साओं को अपने देशप्रेम से गड्मड् नहीं करना चाहिए। मेरे लिए मेरा देश, मेरे राजनीतिक, सैद्धांतिक आग्रहों से कहीं ऊपर है या होना चाहिए। गाँधी से बड़ा भारत-प्रेमी कौन हो सकता था, लेकिन वह भारतीय समाज के सबसे बड़े आलोचक भी थे, क्योंकि जो व्यक्ति हृदय से अपने देश से प्यार करता है, उसे ही आलोचना का अधिकार भी प्राप्त होता है।
जॉर्ज ऑरवेल अंग्रेजी समाज के भीतर वर्ग-भेदों के कटु आलोचक थे, किंतु नात्सी जर्मनी की पाशविक नीतियों के विरोध में उन्हें चर्चिल जैसे लोगों का भी साथ दिया क्योंकि उन्हें मालूम
था कि इंग्लैंड की लोकतांत्रिक परंपराओं को बचाने के लिए राजनीतिक असहमतियों से ऊपर उठना होगा। वह इंग्लैंड से प्रेम करते थे, क्योंकि वह उस ‘स्वप्न’ से प्रेम करते थे, जो इंग्लैंड के यथार्थ से कहीं अधिक मूल्यवान था। क्या भारत हमारे लिए ऐसा ही स्वप्न नहीं था? यदि वह पिछले पचास वर्षों में इतना धुँधला पड़ गया है, तो हम जो अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं, क्या अपने प्रेम की लौ से उस स्वप्न को पुनः प्रकाशमान नहीं कर सकते?
मुझे नहीं मालूम, आज यह कितना असंभव है, लेकिन उस शाम मैंने उसकी एक झलक देखी थी, जब मैंने अपनी माँ के कहने पर पुल के नीचे बहती नदी में पैसे फेंके थे। मेरी माँ अब नहीं है लेकिन मैं सोचता हूँ, वह नदी अब भी है। प्रार्थना करता हूँ कि वह बिल्कुल सूख नहीं गई है।
(साभार)