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सनातन धारा

आर्यों का मूल निवास-स्थान

गलतियाँ सुधारी जा सकती है, भ्रंतियाँ नहीं। भारतीय प्राचीन इतिहास और पुरातत्त्व के क्षेत्र में इतनी खूबसूरत भ्रान्तियाँ पैदा करके फैलाई गई हैं, विदेशी और देशी मनीषा के द्वारा कि उनको विद्वानों और भावी पीढ़ी के शोधार्थियांे के मानस से हटाना बड़ा कठिन हो गया है। पिछले 150 वर्षों से अभी तक जो भ्रान्ति फैलाई जा रही है, वह यह है कि आर्य लोग बाहर से आये। वे इस भारत भूमि के निवासी मूलतः नहीं थे।

कुछ विद्वान आर्यों की चर्चा तो करते हैं, परन्तु कुछ विद्वान आर्यों को आर्य, नहीं वरन् वह कोई जाति या मानव समूह था, ऐसा मानते हैं। उन विद्वानों के नामों का उल्लेख भ्रांति निवारण में सहायक हो सकेगा, ऐसा मैं मानने में थोड़ा संकोच करता हूँ इससे ज्यादा अच्छा है कि आर्य स्वयं अपने तथा भारत के विषय में क्या कहते हैं उसे उद्धृत करूँ। देखिए:

                           1. ”जनं विभ्रती बहुधा विवाचसम नानाधर्माणि पृथ्वी यथौकसम।“ (अर्थववेद 12.1.45) अर्थात इस देश में विविध प्रकार की भाषाओं को बोलने वाले, विविध धर्मों को मानने वाले हैं, फिर भी एक समूह के रूप में सुखपूर्स हार्दपूर्वक एकता के साथ निवास करते हैं। उस मंत्र में ‘विम्रती’ शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ‘विम्रती’ का अर्थ है सौहार्दपूर्वक एकता बनाये रखना अथवा पोषण करना ;दवनतपेीपदहद्ध। 

                             2. ”हमारी राष्ट्र भूमि अमृत हृदय है, जो सत्य से आवृत है।“ यह मान्य और परम सत्य है।

                             3. हमारी राष्ट्रभूमि ऐसी है-

                             ”यस्येमे हिमवंतो महित्वा यस्य समुद्रे रसया सहाहुः।

                               यस्येमा प्रदिशो यस्य बाहु कस्मै देवाय हविषा विधेम।“ (ऋ.1.121.4) 

अर्थात इस महान देश में महान ऊँचाई वाला हिमालय है, जिसमें अनेकों नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती है, जिसकी विशाल फैली बाहुओं के समान दोनों दिशाओं में पर्वतश्रेणियाँ पूर्व से पश्चिम फैली हुई है, ऐसे इस देश के अलावा हम और किस देवता को अपने यज्ञ में श्रद्वा सहित हविष्य प्रदान करें। लोथल (गुजरात) से प्राप्त एक हड़प्पाकालीन मुद्राछाप (ेमंसपदहद्ध पर ‘हवन्य’ शब्द लिखा है। 

   4. हे राज्ञजात बृहस्पति! जिस धन की आर्य लोग पूजा करते हैं, जो दीप्ति और यज्ञ वाला धन यज्ञाग्नि और ज्ञानाग्नि वाला लोगों में शोभा पाता है, जो धन अपने तेज से दीप्ति वाला है, वही धन या तेज प्रदान करो। (रामगोविंद त्रिवेदीः हिन्दी ऋग्वेद, पृ. 324)।

5. मुनिलोग वायुमार्ग में घूमने पर अश्व-स्वरूप हैं। वे वायु के सहचर हैं। वे पूर्व और पश्चिम दोनों समुद्रों के क्षेत्र में निवास करते हैं। (ऋ. ग्.136.5)

6. प्रवाहित होकर सरस्वती ने जलराशि उत्पन्न की है, और इसके अलावा समस्त ज्ञानों का भी जगारण किया है। (ऋ.।.3.12)

7. इन्द्र प´्च क्षिति (पृथ्वी) पर शासन करते हैं। (ऋ.प्.7.9)

8. विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदम भारतं जनम। (ऋ.प्प्प्.53.12) विश्वमित्र के द्वारा दृष्ट एवं प्रदत्त वेद-मंत्र गायत्री सम्पूर्ण भारतीयों की रक्षा करने वाला है। ऋषियों को मंत्र-दृष्टा’ कहा गया है। ऋषयः मंत्र हष्टारः।“ उन्होनें स्वयं कहा है ”स्तुता मया वरदां वेदमाता (गायत्री)…

9. स्वयं विश्वामित्र को भारत-ऋषभ कहा गया है। कुछ विद्वान उन्हें भरत-ऋषभ अर्थात् भरत जन के ऋषभ (राजा) मानते हैं, जो गंगा के मैदान से लेकर विस्तृत सरस्वती क्षेत्र तक फैले हुए थे।

10. महाराज मनु, जिनके द्वारा मानव सृष्टि हुई, के अनुसार ब्रह्मावर्त भूमि ईश्वर कृत है। और भारत के पवित्र स्थलों में ब्रह्मावर्त का प्रथम स्थान है, वह देव निर्मित देश है। (मनुस्मृति, 2.17.24)

11. ‘‘तं देव निर्मितं देशं बह्मावर्त प्रचक्षते।’’ देवता अग्रि और वसुओं ने तुममें बल स्थापित किया है। तुम्हारे कर्म में सहायता की है। तुम कर्मनिष्ट आर्यों के लिए अधिक तेज पैदा करते हुए उन्होंने दस्युओं को उनके स्थानों से बाहर निकाल दिया है। (ऋ.टप्प्प्.5.6) इस मंत्र के देवता अग्रि हैं, ऋषि वशिष्ठ हैं जो त्रित्सओं के प्रजापति (राजा) थे तथा सरस्वती के तट पर (कालीबंगा) में अधिष्ठित थे। स्मरण रहे कि कालीबंगा से प्राप्त एक मिट्टी के बर्तन के टुकड़े पर ‘त्रित्सुवान’ उर्त्कीण है। (पुरातत्त्व, 1, (1967-68) पृ.15-16 चित्र.1)

12. श्री सूक्त (मंत्र, 7) में ऋषि कहता है ‘प्रादुर्भूतोऽस्मिं राष्ट्रेऽस्मिन्।(मैं इसी राष्ट ªभारत में जन्मा हूँ।

13. पुरूकुत्स राजा के पुत्र त्रसदस्यु का शासन यमुना तट से लेकर पश्चिम में सुवास्तु नदी तक था। वे पुरूवंश के मणि थे, पुरुलोग लोग सरस्वती तट पर जा बसे थे। (वेद कथांक कल्याण, गीता प्रेस गोरखपुर पृ.297)। त्रसदस्यु ने अपनी कन्याओं का विवाह कण्व ऋषि के पुत्र सौभरि ऋषि (गंगातीरवासी) के साथ किया था। (उपर्युक्त पृ.297) इससे यह स्पष्ट होता है कि गंगा से लेकर सुवास्तु नदी तक भारतीयों का प्रभाव एवं आधिपत्य वैदिक युग में था। यह उनके पूर्व से पश्चिम की ओर प्रयाण का परिचायक है।

14. भारत की संस्कृति को ”सा प्रथमा संस्कृति विश्वारा यजुर्वेद में कहा गया है।

15. इन्द्र, जो कन्नौज के साथ-साथ सार्वभौमिक सम्राट थे, ने भारद्वाज ऋषि जिनका आश्रम त्रिवेणी तट प्रयाग में था, की स्तुति पर हरियूपिया।(वर्तमान हड़प्पा) जहाँ अभ्यवर्तिन और प्रस्तोक राजाओं का युद्ध वरशिख से चल रहा था, जाकर वरशिख को पराजित किया था।(ऋ.टप्.63.9) इन्द्र ने वहां एक वैदिक संस्थान भी स्थापित किया 

16. ‘‘उत्तर यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चापि दक्षिणम्। वर्ष तद भारतं भारती यत्र संतति।।’’ (विष्णु पुराण, 2.3.1) अर्थात् भारत के उत्तर में हिमालय और दक्षिण में समुद्र है। ऐसे उस देश के नाम भारत है और उसकी संतति (निवासी) भारतीय कही जाती है।

17. गायन्ति देवाः किल गीतकानी धनयास्तु ते भारतभूमि भागे।“ भारतीयों की देवतालोग भी गीत गाकर उन्हें समृद्ध एवं धन्य मानते थे।(विष्णु पुराण 2.3.24)

18. स्वस्तिक चिन्ह जो धर्मिक एकता। कल्याण एवं सूर्य का प्रतीक है, भारत से ही सारे विश्व में फैला (परिपूर्णानन्द वर्मा: प्रतीक शास्त्र, (डॉ0 शिवराममूर्ति)

19. ऋग्वेद के एक मंत्र (प्ण् 130ण्8द्ध मंे ‘यजमान आर्यम’ लिखा है। जो विद्धान यह कहते हैं कि वेदों में आर्यों का कहीं भी उल्लेख नहीं, उन्हें उपर्युक्त उद्धधरणों को संज्ञान में लेने की आवश्यकता है।

20. एक अन्य सबसे महत्त्वपूर्ण संदर्भ ऋग्वेद में मिलता है जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि भारतभूमि के इस दृश्द्वती, अपाया एवं सरस्वती के क्षेत्र को इला के क्षेत्र (प्रयागराज एवं झूसी) से आये यज्ञ और कृषि-विद्या में निपुण मनुष्यों ने ज्ञान और अन्नोत्पादन के लिए उपयुक्त समझा और (यज्ञाग्नि और ज्ञानाग्नि प्रज्जवलित की। देखिए:

”नि त्वां दधे नर आ पृथिवयाँ इलायाः पदे सुदिनत्वं अहनाम्

दृश्द्वत्वा मानुषं अपायायां सरस्वत्यां रेवत् अग्नेदिदीह।“

इससे स्पष्ट है कि गंगा-क्षेत्र, जो अपनी विद्या और श्रेष्ठ भाषा के लिए विख्यात अत्यन्त प्राचीनकाल से रहा है, के लोगों ने हषद्वती, अपाया और सरस्वती के क्षेत्र में जाकर यज्ञविद्या, योगविद्या और वैदिक ज्ञान का प्रचार प्रसार किया। इस प्रकार पूर्व से पश्चिम की ओर आर्यो के वैदिक ज्ञान-विज्ञान एवं संस्कृति का प्रसार हुआ, न कि पश्चिम से पूर्व की ओर। पुरातत्व विज्ञान भी इसकी पुष्टि करता है।

21. गंगा-क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति से हजारों वर्ष पहले की संस्कृति संजोये हैं, वहाँ पकी मिट्टी की सीलें (ेमंसेद्ध मिली हैं जो चार-खने वाली (बवउचंतजउमदजमक जमततं बवजजं मंसेद्ध है और वे संसार की प्राचिनतम मिट्टी की मुहरें विद्वानों के द्वारा मानी जाती हैं। ऐसी महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक सामग्री पर सम्यक् प्रकाश मेरे द्वारा डाला गया है और आगे भी डाला जायेगा तथा यह भी प्रमाणित किया जायेगा कि आर्यों का मूल निवास भी उन्हीं आर्यों के शब्दों में तथा उन्हीं की लिपि में गंगा-घाटी में ही था। ‘वेद प्रमाण है।’ (प्रमन्न इति वेदाः) ऐसा लोथल (गुजरात) से प्राप्त एक-एक मुद्रा (ेमंस) पर उत्कीर्ण पाया गया है। उसी प्राचीन सरस्वती-सिन्धु लिपि में।

इस प्रकार लगभग उपरोक्त उद्धारणों में यह बताने का प्रयास किया है कि आर्यो का निवास भारत में था। यहाँ से वे सम्पूर्ण विश्व में फैले लोगों को सभ्य एवं सुशिक्षित किया। आज भी दुनियां के प्राय हर प्राचीन संस्कृति और सभ्यता वाले देश में वर्णमाला का पहला अक्षर ‘अ’ (अलिफ, अल्फा) से ही प्रारम्भ होता है। भगवान श्रीकृष्ण के समय शिक्षा का प्रचुर प्रसार हो चुका था। रुक्मिणी के द्वारा प्रेम-पत्र श्री कृष्ण को भेजा गया था। इसका उल्लेख भगवत् पुराण में है। स्वयं भगवान कृष्ण ने गीता में कहा हैं।- ‘अक्षराणां अकारोऽस्मि’ (गीता.10.33)। इतना ही नहीं, धौलावीरा के सुप्रसिद्ध साइन-बोर्ड-अभिलेख, जो एक मन्दिर के द्वार पर लगा था उसपर ”म´्चाग श्री च प´्च“ बडे़ चमकदार चमकीले पत्थरों से सज्जित, जड़ित अक्षरों में लिखा है, जो यह भी प्रमाणित करता है कि उस समय तक ‘प´्चवृष्णियों’ जैसे बलराम, कृष्ण, साम्ब, अनिरूद्ध और प्रद्युम्न की मूर्तियाँ भी मंदिरों में स्थापित होने लगी थी। इससे एक बात और प्रमाणित होती है कि हड़प्पा-मोहनजोदड़ो (हरियूपिया और मोहन-कोन्टीलो) से महाभारत कालीन महानगरियाँ थीं।

अन्त में, आर्यों के मूलस्थान के विषय में ऋग्वेद में एक बड़ा ठोस और अकाट्य प्रमाण है जिसमें ऋषि अपने प्रिय शिष्य से कहता है कि गंगा-घाटी ही हमारा मूल निवास है। मैं बार-बार अपने लेखों में दुहरा चुका हूँ और चाहता हूँ कि मेरे देश के प्रोफेसर संस्कृत तथा ऋग्वेद के प्रकाण्ड विद्वान उसको ढूँढ निकालें और विश्व-पटल पर रखें। मैंने अपने पौत्र को उस वेद-मंत्र का मण्डल,सूक्त और मंत्र संख्या बता दी है, लिखा दी है, ताकि मेरी मृत्यु के उपरांत वह उजागर हो जाए क्योंकि अब मैं 85 वर्ष का हैं। शिव जी ने ऐसा न करने पर ब्रह्मा जी का एक सिर उनके जीवनकाल में ही काट दिया था, अब ब्रह्मा चार मुख वाले ही हैं। ऐसा पुराख्यान है।

                                                                                                                  (लेखक वरिष्ठ पुरातत्त्ववेत्ता एवं इतिहासकार हैं)

                                                                                                                                    संपर्क: 9450847877