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दुर्गापूजा: शक्ति की अक्षर साधना

बदलती हुई ऋतुओं के संधिस्थल पर शक्ति-उपासना के महापर्व नवरात्र का आयोजन होता है। भारतीय ऋषि-मनीषा और कवि-चेतना का यह पर्व एक ऐसा वैभव है, जिसे हम शब्द, ध्वनि, नाद और साधना के माध्यम से अपने भीतर की छिपी हुई असीम शक्तियों को पहचानते हुए उसे सकारात्मकता के लिए जागृत करते हैं। हम मातृशक्ति की पूजा करते हैं। यह मातृशक्ति नौ रूपों में नवदुर्गा के नाम से अभिहित होती है। स्त्री-अस्मिता तथा उसकी प्रकृति के संरक्षण, संवर्धन और सम्मान के लिए हमें इसके यथार्थ को जानने के लिए आत्मस्थ होना अनिवार्य है।

बंकिमचंद्र ने गाया – वंदे मातरम् स्वामी विवेकानंद ने कन्याकुमारी के समुद्र में स्थित चट्टान पर बैठकर जंजीर जकड़ी भारत माता की दीन दशा को देखा। स्पंदित, उद्वेलित और आंदोलित हुए। उन्होंने दुखों के कारण को नजदीक से देखा और उसके निदान के लिए अपनी संपूर्ण जाग्रत चेतना के साथ समर्पित हो गए। ऋषि कवि मार्कंडेय ने दुर्गा सप्तशती लिखकर मातृ उपासना को अक्षर और मंत्र का रूप प्रदान किया। इसके पाठ के प्रभाव से वातावरण का कालुष्य तो मिटता ही है, व्यक्ति की अंतःशुद्धि भी होती है। दुर्गा सप्तशती में ध्वनि और नाद का अद्भुत संयोजन है। श्लोक के छंद प्रवाह के आरोह-अवरोह में व्यक्ति की आंतरिक गतिमयता और लय को नियंत्रित करते हैं।

शक्ति उपासना आख्यान में नहीं आख्यान के परिप्रेक्ष्य में सन्निहित अर्थ-गांभीर्य में है। दुर्गा सप्तशती के निहितार्थ और संकेत को समझने के लिए आज संपूर्ण स्त्री-जगत को देखने जानने की नितांत अनिवार्यता है। प्रकृति को प्रदूषित करता म्लेच्छ महिषासुर अपनी दुष्प्रवृतियों के कारण प्रकृति के अलौकिक शक्ति-समुच्चय से मारा जाता है। पुरुष का दुराचारण कभी मधु-कैटभ तो कभी शुंभ- निशुंभ तो कभी चंड-मुंड के रूप में प्रकट और उजागर होता है। ये आसुरी शक्तियां मनुष्य की दुर्बल इच्छाएं और अनर्गल ऐषणाएं होती हैं। पुरुष की आत्मिका होती है, स्त्री और पुरुष स्त्री का आत्मज होता है। दुर्गा सप्तशती का सूक्त सर्वकालिक उद्घोष करता है –

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

 तांत्रिक और कवि रामप्रसाद ने अपने भक्ति-भाव में डूबकर माँ श्यामा के अनेक पद रचे और गाए। वे भाव समाधि में डूब कर सारी-सारी रात माँ श्यामा के साथ नदी के प्रवाह में एकाकी नाव पर विहरते रहते थे। सारी रात पूरे वातावरण में धरती और आसमान के बीच गहरे सन्नाटे में गूँजता रहता था, उनका भक्ति भाव से भरा हुआ मातृगीत। उत्तर छायावाद के श्रेष्ठ कवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने पवित्र माला के मनके की तरह एक सौ आठ श्यामा संगीत का सृजन किया।

जानकीवल्लभ शास्त्री ने अपने हर सृजन को माँ के चरणों में ही अर्पित किया और गाया – मैं गाऊं तेरा मंत्र समझ, जग मेरी वाणी कहे, कहे! हिंदी के महाप्राण निराला ने राम की शक्ति पूजा में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के शौर्य और पराक्रम का पल्लवन और सामर्थ्य शक्ति उपासना में ही सन्निहित किया है। भारत में शक्ति उपासना की एक शाश्वत परंपरा है। वैदिक ऋषियों ने भी शक्ति साधना की है।

शक्ति के उपासक स्वामी रामकृष्ण परमहंस माँ काली के विग्रह में संपूर्ण ब्रह्मांड और सृष्टि की सत्य-संचेतना के दर्शन मात्र ही नहीं करते थे, बल्कि उससे साक्षात्कार करते हुए संवाद भी करते थे। सर्व व्यापिनी शक्ति ही जड़ चेतन को अस्तित्व में रखती है। सृजन और संहार उसके निरंतर होने की लीला है। मार्कंडेय ऋषि ने दुर्गा सप्तशती में- ‘या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः’ – गाकर असीम, अनंत, अछोर, अदृश्य, अकूत और अलौकिक शक्ति को माँ के रूप में दृश्यमान किया। सृजन, पालन और संहार की अकल्पनीय शक्ति होती है माँ। माँ कल्पनातीत, शब्दातीत और चेतना की पराकाष्ठा पर जाकर भावातीत हो जाती है। रामकृष्ण परमहंस ने इसे अपने वचन, भाव और स्वरूप में प्रत्यक्ष किया। माता सती अनुसूया की परीक्षा लेने गए थे सर्जक, पालक और संहारक ब्रह्मा-विष्णु-महेश। माता अनुसूया ने उनके भावों को अपने शक्ति-प्रक्षेप से शिशु बना दिया था। मातृशक्ति की गोदी में तीनों किलकारियां भरते खेलते रहे। शक्ति के सामने ब्रह्मांड के सारे अस्तित्व बौने हैं, नगण्य हैं, कुछ भी नहीं हैं। रामकृष्ण परमहंस ने शक्ति को केंद्रिभूत भी किया और विकेंद्रित भी। विवेकानंद के तर्क और अज्ञानता को परमहंस ने अपने स्पर्श मात्र से तिरोहित कर दिया था। यह शक्ति ही थी जिसने नरेंद्र को विश्व विभूति विवेकानंद के रूप में पूरे वैराट्य के साथ परिवर्तित कर दिया था।

संदर्भ है कि एक बार विवेकानंद को कुछ धन की बड़ी आवश्यकता पड़ी। तब उनकी माँ जीवित थीं और परिवार अर्थ-संकट से जूझ रहा था। कंचन और कामिनी से सर्वथा पृथक गुरु रामकृष्ण परमहंस से विवेकानंद ने धन की चाहना की। गुरु ने कहा- ‘‘मैं एक अकिंचन, तुम्हें धन कहाँ से दे सकता हूँ, जा सर्वव्यापिनी, सर्वज्ञ शक्तिमती माँ से मांग ले।’’ विवेकानंद ने गुरु के निर्देश का पालन करते हुए माँ काली के मंदिर में जाकर माँ की मूर्ति के सामने ध्यान लगाया। गहन ध्यान की स्थिति में उनके अंतर्मन के भाव प्रकट हुए, ‘‘माँ! मुझे ज्ञान दे, विवेक दे, वैराग्य दे! माँ! मुझे मनुष्य बना दे!’’ माँ के समक्ष प्रार्थना करके विवेकानंद गुरु रामकृष्ण के पास लौटे। गुरु के चेहरे पर मधुर मुस्कान थी। विवेकानंद ने गुरु की अलौकिक स्मिति को नहीं देखा। वे धन पाने के लिए बेचैन थे। गुरु ने पूछा, ‘‘माँ से धन मांग लिया?’’ विवेकानंद की स्मृति लौटी, उन्होंने कहा, ‘‘शायद मैं कुछ और ही मांगता रह गया, धन नहीं मांग सका।’’ गुरु ने फिर माँ के समक्ष प्रार्थना करने के लिए उन्हें प्रेरित करते हुए आदेश दिया। विवेकानंद ध्यान लगाते ही वही वही सब कुछ मांगते रहे, ‘‘माँ मुझे ज्ञान दे, विवेक दे, वैराग्य दे, माँ मुझे मनुष्य बना दे!’’ यह प्रक्रिया तीन बार हुई। ध्यान में जाते ही तीनों बार माँ से धन मांगने की प्रार्थना में विफल हुए विवेकानंद। वे मांगते रहे ज्ञान, विवेक और वैराग्य। जाने यह किस की लीला थी शक्तिपुत्र रामकृष्ण परमहंस की या साक्षात शक्ति माँ की। रामकृष्ण परमहंस ने कहा, ‘‘तुमने सच्चे मन से माँ के समक्ष प्रार्थना की है। तुमने यथार्थ-प्राप्ति की कामना की है। तुम्हारा ध्येय मानवता का उद्धार है, इसी की तुमने चाहना की है। माँ ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली है। तुझे ज्ञान मिलेगा, विवेक मिलेगा, वैराग्य मिलेगा, तू विराट मनुष्य बनेगा।’’

गुरु के आशीर्वाद और शक्ति की असीम कृपा से संन्यासी स्वामी विवेकानंद शिकागो के विश्व धर्म संसद में सम्मिलित हुए। विवेकानंद के पास कुछ भी नहीं था, कोई व्यवस्था नहीं थी, कोई उपाय नहीं था, केवल दृढ़ संकल्प था, जिसको शक्ति का संबल मिला था। विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद की उपस्थिति उस आलोकपुंज सूर्य की तरह हुई थी, जिसके आते ही अंधकार की चादर तार-तार होकर विलुप्त हो जाती है। स्वामी विवेकानंद उस महासागर के विस्तार को लेकर वहाँ प्रकट हुए थे, जिसमें सारी नदियां आकर विलीन हो जाती हैं। साधना और ज्ञान के असीम आसमान को आत्मसात करके शिकागो में भासमान हुए थे स्वामी विवेकानंद।

विवेकानंद की वाणी में सरस्वती उतर आई थी, सौंदर्य और तेज में लक्ष्मी प्रदीप्त हो उठी थी, पुरुषार्थ में माँ काली अंगड़ाई ले रही थी। आडंबर और अंधकार में घिरे हुए विश्व के अनेक धर्मों के दुर्ग को स्वामी विवेकानंद ने अपनी उदात्त वैचारिकता, शक्ति साधना और शिव संकल्प से ध्वस्त कर दिया था। विश्व को आलोकित करने की यह महती उपलब्धि स्वामी विवेकानंद को ‘दुर्गा दुर्गति नाशिनी’ की शक्ति-कृपा से प्राप्त हुई थी। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी संपूर्ण साधना को अपने शिष्य विवेकानंद में उलींच दिया था। यह प्रसंग और अभियान तब का है जब संसार आज की तरह तकनीकी सुविधाओं से संपन्न नहीं था। भारत परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ अपनी दीन-हीन दशा पर विलाप कर रहा था। हर तरह से विपन्न मगर शक्ति-स्नेह से संपन्न विवेकानंद का विश्व धर्म संसद में पहुँचना एक महान आश्चर्य की तरह ही है जो घटित हुआ और जिसका समृद्ध इतिहास आज भी सुनहरे अक्षरों में अंकित होकर प्रतिबिंबित हो रहा है।

शक्ति-उपासना समस्त दीनताओं से मुक्त करती है। हीनता की ग्रंथियों को शक्ति साधना औदात्य की भावनाओं से अभिसिंचित कर देती है। शक्ति साधना जीवन और जगत के सत्य का साक्षात्कार कराती है। स्वामी विवेकानंद अल्पायु होकर भी दीर्घायु विचारों के साथ कालजई महापुरुष हैं तो उसके पीछे शक्ति साधना का सतत आशीर्वाद है। शक्ति का प्रभाव सर्वकालिक और सर्वजनिन है। इससे अछूता कुछ भी नहीं है। शक्ति से विमुक्त होकर शव जो सड़ांध पैदा करता है तो प्रकारांतर से उसमें भी शक्ति का ही निक्षेप होता है। शक्ति की सार्थकता आत्म जागृति, ब्रह्म दर्शन और सत्य संधान में होती है। स्वामी विवेकानंद ने अपने माध्यम से संपूर्ण विश्व को शक्ति का जो निदर्शन कराया, वह आज भी चमत्कार की तरह प्रतीत होता है, मगर यह तो विश्व मंच पर घटित हुआ ऐसा इतिहास है, जिसे कदापि विस्मृत नहीं किया जा सकता है। भारत अपने अनेकानेक शक्ति साधकों के कारण कल भी आकर्षण का केंद्र था, आज भी है और आने वाले समय में भी रहेगा। भारत के ज्ञान और कर्म का मानवतावादी समन्वय संसार के लिए प्रेरक और आदर्श सम्मोहन है। शक्ति साधना व्यक्तित्व, कृतित्व और अस्तित्व को सम्मोहक बनाता है।

शब्दों में ब्रह्मांड बंध, बंधे गीत-संगीत! अपना अर्थ लगाइए, माँ है शब्दातीत!!

संपर्क: ‘शुभानंदी’ नीतीश्वर मार्ग, आमगोला मुजफ्फरपुर – 842002 मो: 62003675