विशुद्ध स्वर रचनात्मक बदलाव का साक्षी

नारी शक्ति समाज का आधारस्तंभ है

  प्रणव कुमार

प्रिय पाठको! ‘विशुद्ध स्वर’ के अक्तूबर माह के अंक को ‘मातृशक्ति वंदन विशेषांक’ के रूप में प्रस्तुत करते हुए हमें खुशी है। यह माह पितृपक्ष और शारदीय नवरात्रि के साथ ही भारत के पूर्वांचल क्षेत्र मे माँ के द्वारा संतान की कुशलता और उसके दीर्घायु होने के आशीष की कामना से निर्जलीय जीवित-पुत्रिका (जीवतिया) व्रत के कारण भी खास है! मातृ सत्ता के कारण ही वंशबेल बढ़ती है और तभी तो मातृ शक्ति (प्रकृति) जीवन का आधार है!पिछले महीने भारत सरकार ने संसद का विशेष सत्र आहूत कर महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में एक और कदम उठाया, जब संसद में ऐतिहासिक 128वाँ संविधान संशोधन विधेयक, अर्थात नारी शक्ति वंदन अधिनियम पारित किया गया। इस विधेयक में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। संसद में पेश किए जाने के 27 वर्ष बाद इसे लोकसभा में 2 के मुकाबले 454 के बहुमत से और राज्यसभा में सर्वसम्मति से पारित किया गया।

कुछ दल इस कदम के समय को लेकर इसकी आलोचना कर रहे हैं तो कुछ दल अन्य पिछड़े वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के अंदर आरक्षण की माँग कर रहे हैं। यह खींच-तान करना इन दलों की राजनीतिक मजबूरी है, क्योंकि जिस लोलीपॉप के सहारे दशकों तक राजनीति चमकाते रहे, वह मुद्दा अब रहा नहीं, तो छिद्रान्वेषण ही सही। एक आम भारतीय के रूप में और सकारात्मक बदलाव के समर्थक होने के नाते ‘विशुद्ध स्वर’ इस कानून का स्वागत करता है। जरूरी नहीं कि यह कानून पूरी तरह से नारी शक्ति की आकांक्षाओं पर खरा उतरे, परंतु पहल अच्छी है।

सनातन संस्कृति में प्रकृति आदिशक्ति है, वह अपने आप में संपूर्ण जगत के चराचर, हरकण में व्याप्त मातृशक्ति हैं। इस मातृशक्ति के सामंजस्य में मनुष्य एवं अन्य जीवों का कल्याण निहित है। बहुधा मेरे मन में यह प्रश्न उठता है कि आखिर यह कौन सी शक्ति है, जो विश्व की हर घटना की कारक है? और ऐसा क्यों है कि मनुष्य की सोच और योजना का क्रियान्वयन पूणर्तः उसके नियंत्रण में नहीं है? फिर अपने पूर्वजों, ऋषियों, मुनियों की बातें स्मरण हो आती हैं कि हम तो एक नश्वर पात्र हैं, यह जीवन के रंगमंच में कुछ देर के लिए जो विधि निर्धारित है, अपना पात्र निभाते हैं और इशारे में, एक पल में हमारी ऊर्जा, हमारी श्वास, शरीर को निष्प्राण कर देती हैं।

प्रश्न यह भी है कि आखिर जीवन का आधार कौन है? जाहिर है, हम यह मानते हैं या विज्ञान कहता है कि जीव के जन्म के लिए मातृ एवं पितृ शक्ति का मिलन आवश्यक है, लेकिन प्रकृति के बहुत ऐसे आयाम हैं, जहाँ कि प्रकृति को पुरुष शक्ति की आवश्यकता नहीं होती, जैसे कृषि की उपज, उद्भिज, वनस्पति इत्यादि। हम वैज्ञानिक विश्लेषण कर कह सकते हैं कि सूर्य की उष्मा से मिट्टी की अनेक खनिज गुणों से और पानी तथा हवा में प्राप्त गैसों के आपसी सम्मिश्रण एवं यौगिक क्रियाओं से इनका उत्पादन एवं संवर्धन होता है। सच है, आप विश्लेषण करें,लेकिन हमारे पूर्वज इस बात की व्याख्या पृथ्वी, जल इत्यादि को आदि शक्ति-मातृशक्ति की हीअभिव्यक्ति मानते हैं। तभी तो धरती, नदिया, तालाब इत्यादि सब माँ हैं।

भारतीय समाज, खासकर सनातन हमेशा नारी शक्ति को पूजनीय और वंदनीय मानता हैऔर उन्हंे समानता का अवसर देने मे विश्वास रखता है। परंतु इतिहास के कुछ ग्रहण काल मे ये मान्यताएँ और व्यवहार भी प्रभावित हुए, जो कि सनातन के मूल सिद्धांतों से भटके हुए थे। अब यह आवश्यक है कि भारतीय जनमानस अपने श्री (प्रकृति) के रूप मंे बच्चियों और महिलाओं का उचित सम्मान, समर्थन और संरक्षण करे। हर किसी को मन, वचन और कर्म हर रूप मे इस भावना को अपने जीवन मे आत्मसात् करना होगा।

भारत जैसे विशाल 140 करोड़ से भी ज्यादा की जनसंख्या में कुछ विकृत मानसिकता वाले विधर्मी महिलाओं के प्रति जघन्य अपराध को अंजाम देते हैं। वे पीड़ित के परिवार, रिश्तेदार और करीबी भी हो सकते हैं। ऐसे अपराधियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं की जानी चाहिए और त्वरित सजा की कार्यवाही करनी चाहिए। इस दिशा में भी कुछ त्वरित न्यायालयों का गठन और सजा मं बढ़ोत्तरी इस सरकार के काल में की गई है, जो कि एक सकारात्मक पहल है।

दुर्गा सप्तशती के देव्यथर्वशीर्ष और रहस्यों के पठन से यही प्रतीत होता है कि एक अदृश्य परंतु सार्वभौम सर्वव्यापी स्वयंभू ऊर्जा, जिसे हम आदिशक्ति या प्रकृति कहते हैं। उसी के विविध रूप, आयाम और दर्शन को संसार के तीनों स्थितियों उद्भव, स्थित और संहार मे हम अलग-अलग नामों यथा ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के नाम से जानते हैं। ये सारे देव, जो पुरुष प्रकृति मे दिखते हैं, वो नारी प्रकृति के संग और सम्मिलन के बिना शक्तिहीन और ऊर्जाहीन हो जाते हैं। कोई भी कार्य पुरुष प्रकृति के साथ के बिना संपादित नहीं कर सकता। ऊर्जा के दो पहलू नारी और पुरुष ही साथ-साथ एक-दूसरे के पूरक रूप मे इस संसार के छोटे से छोटे जीव मे व्याप्त है। अतः नारी को समानता या श्रेष्ठता का प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक अधिकार है और जिस समाज ने इस तथ्य को स्वीकार कर अपने दैनंदिन व्यवहार में शामिल कर लिया, वह परिवार या समाज पूर्ण, खुशहाल और समृद्ध होगा, यह सुनिश्चित है।

नारी शक्तिशाली है, परोपकारी है, सहनशील है, समन्वयक है, कुशल प्रबन्धक है और हरपरिवार की खुशियों का आधारस्तंभ है। तभी वह पति के लिए हरतालिका तीज और संतानों के लिए जीवितपुत्रिका जैसे पूरे दिन के निर्जला व्रत को पूरी तन्मयता से हर कार्य को करते हुए सम्पूर्ण करती है। धर्मपरायण और इंद्रियजयी हैं स्त्रियाँ! आज अगर सनातन संस्कृति जिंदा है, तो उसमें हमारी माताओं और बहनों का अहम योगदान है। उनकी त्याग, तपस्या और सेवा-भाव के बूते ही हमारी पीढ़ियाँ समृद्ध होती आयी हैं।

लेकिन स्वार्थ, पाप और लालच के युग, इस कलियुग में सबसे ज्यादा प्रताड़णा भी महिलाएँ ही झेल रही हैं। यह भी सत्य है कि कुछ महिलाएँ आधुनिक महिला हितैषी कानून, यथा दहेज उत्पीड़न, एससी-एसटी अधिनियम हो या कार्यालयी क्षेत्र में यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए अधिनियम हो, की आड़ में पुरुष उत्पीड़न में संलग्न हो पुरुषांे के मानसिक और आर्थिक शोषण में संलग्न पायी गई हैं। यह वर्षों के कड़वे अनुभवों के प्रतिक्रियात्मक कार्य भी हो सकते हैं, किन्तु यह ज्यादातर मामलो में व्यक्तिगत द्वेष-वैर का परिणाम होता है। समाज को अगर सफल बनाना है

तो दोनों, पुरुष और स्त्री, को साथ-साथ हमसफर और सहयोगी बन संतुलित व्यवहार और मर्यादा के साथ चलना ही होगा। अभी पितृपक्ष मे भाव रूप मंे ही श्राद्ध की क्रिया करते हुए हम अपने पुरखों से जुड़ते हैं, कितनी गहरी संवेदना के स्तर पर यह प्रक्रिया हमारी सनातन जीवन पद्धति में जोड़ी गई है। यह हमें अपने पूर्वजो की तीन पीढ़ियों, परिवार के दोनों पक्ष, मातृ और पितृ, ज्ञात-अज्ञात सभी मृत आत्माओं और भीष्म पितामह जैसे महापुरुष के साथ ही देव, ऋषि इत्यादि के प्रति कृतज्ञता के भाव के साथ तर्पण करते हुए गहरे मनोभावों से जोड़ती है। यह हमें भूत और अपने अस्तित्व की जड़ों को याद कराते हुये अग्रसर होने के लिए ऊर्जा देता है। यह सच है कि मनुष्य के भाग्य औरउसके प्रतिफल मे पुरखों के पुरुषार्थ और धर्म कर्म के फल का भी बहुत अहम योगदान होता है।

माँ दुर्गा से असीम ऊर्जा और आशीष की प्राप्ति हेतु किया जाने वाला शारदीय नवरात्रि का धार्मिक महत्त्व के साथ वैज्ञानिक आधार भी है। नौ दिनों की सात्विक साधना से साधक का शरीर आने वाले मौसम के अनुकूल बन जाता है। ध्यान और मंत्रोच्चार के साथ हवन इत्यादि से घर का वातावरण भी पवित्र हो जाता है, जो अनेक हानिकारक जीवाण-जनित रोगों के नियंत्रण मंे मदद करता है। आदिशक्ति प्रकृति के नौ रूपों की पूजा यह भी बताती है कि जीवन को सार्थक रूप से जीने और सफल बनाने के लिए हमें विविधता को अपनाना चाहिए। समय और परिस्थिति के अनुकूल हमं  भी अपने विचार, कर्म और औजार बदलने चाहिए। कभी दया तो कभी रौद्र रूप धारण करना होगा। अगर सामने रक्तबीज और महिषासुर हो तो आप शांति पाठ नहीं कर सकते, बल्कि उनका शमन करने के लिए पुरुषार्थ और प्रयत्न करना होगा, वहीं अगर अकाल और सूखा पड़ा हो और जीवन कष्ट मंे हो तो माँ शाकंभरी की तरह दया-दृष्टि डालते हुए करुणा की वर्षा भी करनी होगी।

यह विशेषांक मीमांषा, वैचारिक लेखांे, कहानी, लघुकथा, कविताएँ, सम-सामयिक विषयों पर सारगर्भित लेखो के साथ परिपूर्ण है। माँ सरस्वती के समस्त वरदपुत्रांे और पुत्रियों को नमन, जिनकी लेखनी और रचना-संसार का बिम्ब इस अंक मे पाठकों को पढ़ने को मिलेगा। जैसा कि आप जानते हैं पत्रिका के मुद्रण की शुरुआत हो चुकी है, जिसका जोरदार स्वागत हुआ है। अतः पाठकों और समर्थकों से अनुरोध है कि पत्रिका लेने हेतु पंजीयन ज्यादा से ज्यादा संख्या में करें और कराएँ, जिससे इसकी मुद्रण लागत निकाली जा सके! हमंे विपणन एवं प्रसार में भी आपसे सहयोग की अपेक्षा और आशा है। इस पत्रिका का संचालन आप सब के सहयोग के बिना संभव ही नहीं है!

पूरे विशुद्ध स्वर पत्रिका परिवार की तरफ से आप सबको आने वाले त्योहारों और शरद ऋतु के आनंद के लिए शुभकामनाओं सहित !

या देवी सर्वभूतेषु, प्रकृति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।