विशुद्ध स्वर रचनात्मक बदलाव का साक्षी

महिला आरक्षण: नारी शक्ति का अभिनंदन

भारतीय परंपरा में किसी नए भवन में स्त्री का प्रवेश शुभ माना जाता है। इसी दृष्टिकोण के चलते संसद के नए भवन में पहला पग महिलाओं के सम्मान में उठा है। केंद्र सरकार ने गणेश चतुर्थी के दिन इस शुभ पहल को करके देश की आधी आबादी का अभिनंदन किया है। लोकसभा में 27 साल से लंबित ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ नाम से महिला आरक्षण संबंधी विधेयक पेश कर दिया। इस विधेयक के पारित होने के बाद संसद के दोनों सदनों से लेकर विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी 33 प्रतिशत हो जाएगी। विधेयक के कानून में बदलने और क्रियान्वित होने के बाद वर्तमान स्थिति के हिसाब से लोकसभा में महिलाओं के लिए 181 और राज्य विधानसभाओं में 1374 सीटें आरक्षित हो जाएंगी

इन सीटों पर महिला प्रत्याशी ही चुनाव लड़ सकेंगी। फिलहाल इस आरक्षण की सुविधा 15 वर्ष के लिए होगी, लेकिन माँग के अनुसार इसे बढ़ाया भी जा सकता है। इसी साल पाँच राज्य विधानसभाओं के अलावा मई 2024 में लोकसभा के चुनाव भी होने हैं। इसलिए नारी सशक्तिकरण के इस उपाय को महिला मतदाताओं के धु्रवीकरण के साधन के रूप में भी देखा जा रहा है। देश में इस समय करीब 44 करोड़ महिला मतदाता हैं। हालांकि यह विधेयक दोनों सदनों से पारित हो जाने के बाद भी इसे नई जनगणना और नए परिसीमन के बाद 2026 से लागू करने का प्रस्ताव रखा गया है। इसलिए कालांतर में होने वाले चुनावों में इसे अमल में तो नहीं लाया जा सकेगा, लेकिन भाजपा के लिए महिला मतदाताओं को आकर्षित करने का काम यह विधेयक अवश्य कर जाएगा।

इसके कानून बनते ही ऐसे कई दोहरे चरित्र के चेहरे हाशिये पर चले जाएंगे, जो पिछड़ी और मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण देने के प्रावधान के बहाने, गाहे-बगाहे बीते 27 साल से गतिरोध पैदा किए हुए थे। महिला आरक्षण विधेयक का मूल प्रारूप संयुक्त मोर्चा सरकार के कार्यकाल के दौरान गीता मुखर्जी ने तैयार किया था। लेकिन अकसर इस विधेयक को लोकसभा सत्र के दौरान अंतिम दिनों में पटल पर रखा गया। इससे यह संदेह हमेशा बना रहा कि एचडी देवगौड़ा, इन्द्रकुमार गुजराल और अटलबिहारी वाजपेयी सरकारें गठबंधन के दबाव और राजनीतिक असहमतियों के चलते ठोस इच्छा शक्ति नहीं जता पाई थीं। हालांकि 9 मार्च 2010 में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने जरूर इस विधेयक को राज्यसभा में पेष कर पास करा लिया था, लेकिन मनमोहन सिंह इसे लोकसभा से पारित नहीं करा पाए थे। जबकि उनके पास लोकसभा में स्पष्ट बहुमत था। इस सरकार को अपने ही सहयोगी दलों के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा था। सहयोगी गठबंधन के सांसदों ने पिछड़ी और मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण देने के प्रावधान के बहाने, इस विधेयक को अटका दिया था। यहाँ तक की समर्थक दलों ने कांग्रेस को समर्थन वापसी की धमकी भी दे दी थी। हालांकि प्रजातंत्र में तार्किक असहमतियां, संवैधानिक अधिकारों व मूल्यों को मजबूत करने का काम करती हैं, लेकिन असहमतियां जब मुट्ठीभर सांसदों की अतार्किक हठधर्मिता का पर्याय बन जाए तो यह संसद की गरिमा और सदन की शक्ति को ठेंगा दिखाने वाली साबित होती हैं।

उस समय विधेयक से असहमत दलों की प्रमुख मांग थी, ‘33 फीसदी आरक्षण के कोटे में पिछड़े और मुस्लिम समुदायों की महिलाओं को विधान मंडलों में आरक्षण का प्रावधान रखा जाए।’ जबकि संविधान के वर्तमान स्वरूप में केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के समुदायों को आरक्षण की सुविधा हासिल है। ऐसे में पिछड़े वर्ग की महिलाओं को लाभ कैसे संभव है? हमारे लोकतांत्रिक संविधान में धार्मिक आधार पर किसी भी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। लिहाजा इस बिना पर मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण की सुविधा कैसे हासिल हो सकती है? आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने सच्चर व रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों को आधार मानते हुए मुसलमान व ईसाईयों को नौकरियों में धर्म आधारित आरक्षण की व्यवस्था की थी, लेकिन न्यायालयों ने इन्हें संविधान-विरोधी फैसला जताकर खारिज कर दिया था।

दरअसल इस कानून के वजूद में आ जाने के बाद अस्तित्व का संकट उन काडरविहीन दलों को है, जो व्यक्ति औैर जाति आधारित दल हैं। इसी कारण लालू, मुलायम और शरद यादव इस बिल के विरोध मंे दृढ़ता से खड़े हो गए थे। उत्तर प्रदेश और बिहार में जातियता के बूते क्रियाशील इन यादवों की तिकड़ी का दावा रहता है कि इस अलोकतांत्रिक विधेयक के पास होने के बाद पिछड़ी व मुस्लिम महिलाओं के लिए जम्हूरियत के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। जबकि इनकी वास्तविक चिंता यह नहीं है? दरअसल 33 फीसदी आरक्षण के बाद बाहुबलि बने पिछड़े वर्ग के आलाकमानों का लोकसभा व विधानसभा क्षेत्रों में राजनीतिक आधार तो सिमटेगा ही, सदनों में संख्याबल की दृष्टि से भी इन दलों की ताकत घट जाएगी। अन्यथा ये सियासी दल वाकई उदार और पिछड़ी व मुस्लिम महिलाओं के ईमानदारी से हिमायती हैं, तो सभी आरक्षित सीटों पर इन्हीं वर्गों से जुड़ी महिलाआंे को उम्मीदवार बना सकते हैं? बल्कि अनारक्षित सीटों का भी इन्हें प्रतिनिधित्व सौंप सकते हैं? दरअसल इन कुटिल राजनीतिज्ञों के दिखाने और खाने दांत अलग-अलग हैं। गोया तय है कि अल्पसंख्यकों की बेहतर नुमाइंदगी की वकालात के इनके दावे थोथे हैं।

इन दलों का दोहरा चरित्र इस बात से भी जाहिर होता रहा है कि जब देश की पंचायती राज्य व्यवस्था में महिलाओं का 33 फीसदी से 50 फीसदी आरक्षण बढ़ाने का विधेयक लाया गया था तब ये सभी दल एक राय थे। यही नहीं, जब नगरीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण का विधेयक लाया गया था, तब भी इन दलों की सहमति बनी रही। लेकिन जब लोकसभा व विधानसभा की बारी आती है, तो यही दल गतिरोध पैदा करने लग जाते हैं। क्योंकि यह विधेयक कानूनी स्वरूप ले लेता है तो इनके निजी राजनैतिक हित प्रभावित होंगे। इनका लोकसभा और विधानसभा में पुरुषवादी वर्चस्व का दायरा 33 फीसदी घट जाएगा। राजनेताओं के लिए यह विधेयक इसलिए भी वजूद का संकट है, क्योंकि जिन लोक व विधानसभा क्षेत्रों से ये लोग लगातार विजयश्री हासिल करते चले आ रहे हैं, वह क्षेत्र यदि महिला आरक्षण के दायरे में आ गया तो इन्हें चुनाव लड़ना भी मुश्किल हो जाएगा? तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने भी मुस्लिम समुदाय को बरगलाए रखने के नजरिये से इस विधेयक का विरोध किया था। भ्रष्टाचार में लिप्त ऐसे नेता भी इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं, जिनके लिए सांसद अथवा विधायक के रूप में लोकसेवक बने रहना, सुरक्षा कवच का काम करता है।

हमारे देश में विकास को आँकड़ों और व्यक्तिगत उपलब्धि को संख्या बल की दृष्टि से देखने- परखने की आदत बन गई है। इस नाते हम मानकर चल रहे हैं कि 543 सदस्यीय लोकसभा में 181\

महिलाओं की आमद दर्ज होने और 28 राज्यों की कुल 4123 विधानसभा सीटों में से महिलाओं के खाते में 1374 सीटें चली जाने से देश की समूची आधी आबादी की शक्ल बदल जाएगी। अथवा स्त्रीजन्य विषमताएं व भेदभाव समाप्त हो जाएंगे। फिलहाल लोकसभा में 82 महिलाएं सांसद हैं। यह भागीदारी 15 प्रतिशत बैठती है। वहीं राज्यसभा में 29 महिला सांसद हैं, जो मात्र 12 प्रतिशत है। एक तिहाई आरक्षण लागू होने के बाद लोकसभा में महिलाओं की संख्या बढ़कर 181 और राज्यसभा में 73 हो जाएगी। 1952 में गठित पहली लोकसभा में सिर्फ 4.4 प्रतिशत यानी 489 में से महज 22 महिलाएं सांसद थीं। विधानसभाओं में महिला विधायकों की उपस्थिति केवल 9 फीसदी है। हालांकि असमानता के ये हालत पंचायती राज लागू होने और उसमें महिलाओं की 33 और फिर 50 फीसदी आरक्षण सुविधा मिलने के बावजूद कायम हैं। लेकिन लोकसभा व विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं की उपस्थिति इसलिए जरूरी है, जिससे वे कारगर हस्तक्षेप कर महिला की गरिमा तो कायम करें ही देश में जो पुरुष की तुलना में स्त्री का अनुपात गड़बड़ा रहा है, उसको भी समान बनाने के उपाय तलाशें? साथ ही महिला संबंधी नीतियों को अधिक उदार व समावेशी बनाने की दृष्टि से उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता भी दिखाई दे। इस विधेयक के प्रारूप में तत्काल आरक्षण का प्रावधान नहीं है। गोया, विधेयक पारित हो जाने के बावजूद 2026 से 33 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा देश की आधी आबादी को प्राप्त होगी।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।)  संपर्क: शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी शिवपुरी (म.प्र.)  मो.: 9981061