विशुद्ध स्वर रचनात्मक बदलाव का साक्षी

वन्दे भारत के पत्थरबाज!

संजय कुमार मिश्र

राजस्थान की रंगीली वादियों में मस्ती की धुन में तीव्र चौकड़ी भरती हुई उदयपुर-जयपुर वंदे भारत चित्तौड़गढ के पास सामने पटरी पर ढ़ेर सारे पत्थर और लोहे की सरिया पड़े देखकर उसका हलक सूख गया। उसने तत्काल झटके से जान पर खेलकर अपने-आप को रोका। उसके अंदर एक भूचाल सा उठा, दर्द से कराहते हुए उसने मन ही मन सोचने लगी, जब प्रधानमंत्री ने पहली वंदे भारत को 15 फरवरी, 2019 को नई दिल्ली से वाराणसी के लिए रवाना किया था तो उसके दूसरे दिन ही जो दिल्ली से पत्थरबाजी का सिलसिला प्रारंभ हुआ, वह आज तक थमा नहीं और आज तो पूरी तरह नष्ट कर हजारों यात्रियों की हत्या की साजिश रच

आज तक सैकडों बार, प्रायः हर सप्ताह कहीं न कहीं पत्थरबाजी का शिकार बनने के बाद भी अपने जख्मों को सहलाते हुए ‘वन्दे भारत एक्सप्रेस’ अपनी गति की तरंग-लय में गतिमान है। मूर्ख शैतान पत्थरबाजों को मेरी चमक-दमक के साथ तेज चौकड़ी भरना रास नहीं आ रहा। इन्हें पता होना चाहिए कि मेरी गुणों और गति में आधुनिक भारत के अधिकांश लोगों के सपनों की धड़कन बसी है। लोग आज समय के साथ चलना चाहते हैं, जब पूरी दुनिया नवगति, नवलय से आगे बढ़ रही है, तो भारत के लोग कबतक लस्टम-पस्टम करते हुए घंटांे के सफर को दिनों में पूरा करते हुए पीछे घिसटते रहें। हाँ, यह सही है कि हर देश और समाज में ऐसे लोग होते ही हैं, जो तर्क-विज्ञान और आधुनिकता को धत्ता बताते हुए अतीत और कठमुल्लेपन के शिकार होते हैं, क्योंकि विवेक और आधुनिकता को समर्थन देने से उनका धंधा-पानी बंद होने का डर होता है। जरा सोचिए, जब पहली बार हाईस्पीड रेल की बात हुई थी तो अच्छे-खासे गुणीजनों ने कैसा उपहास उड़ाया था।

अपने में डूबते हुए सोचती रही, यह सिर्फ मेरे साथ ही थोड़ा ही हुआ है, यहाँ की बेटियों- महिलाओं के साथ भी यही सब होता रहा, जब उसने नए जमाने के अनुरूप पुरुषों के संग कदम- ताल मिलाकर चलना प्रारंभ किया। उसे रोकने के लिए क्या-क्या नहीं होता रहा है। पहले तो उसके जन्म से पहले भ्रूण में ही मार देने की कोशिश, किसी तरह अगर जन्म हो गया तो पालन-पोषण और समान शिक्षा में हजार तरह के शारीरिक, मानसिक रोड़े, उससे किसी तरह आगे बढ़ी तो कैरियर, शादी, घर-गृहस्थी में हर जगह कहीं दहेज, कहीं तेजाब, तो कहीं तलाक, तलाक और तलाक के नाम पर वज्रपात! देश और दुनिया में न जाने कितनी बेटियों को अपने मूलभूत अधिकार पाने और स्वतंत्र होकर सर उठाकर जीने की चाहत में संगसार कर दिया गया। परंतु फिर भी बेटियाँ हारने वाली नहीं हैं, वे आगे बढ़ रहीं हैं, सरपट भाग रही हैं, हर मोर्चे पर झंडे गाड़ रही हैं। आखिरकार नये संसद के उद्घाटन सत्र में ही उसने संसद और विधानसभाओं में आरक्षण लेकर ही दम लिया।

अपने में डूबते हुए सोचती रही, यह सिर्फ मेरे साथ ही थोड़ा ही हुआ है, यहाँ की बेटियों- महिलाओं के साथ भी यही सब होता रहा, जब उसने नए जमाने के अनुरूप पुरुषों के संग कदम- ताल मिलाकर चलना प्रारंभ किया। उसे रोकने के लिए क्या-क्या नहीं होता रहा है। पहले तो उसके जन्म से पहले भ्रूण में ही मार देने की कोशिश, किसी तरह अगर जन्म हो गया तो पालन-पोषण और समान शिक्षा में हजार तरह के शारीरिक, मानसिक रोड़े, उससे किसी तरह आगे बढ़ी तो कैरियर, शादी, घर-गृहस्थी में हर जगह कहीं दहेज, कहीं तेजाब, तो कहीं तलाक, तलाक और तलाक के नाम पर वज्रपात! देश और दुनिया में न जाने कितनी बेटियों को अपने मूलभूत अधिकार पाने और स्वतंत्र होकर सर उठाकर जीने की चाहत में संगसार कर दिया गया। परंतु फिर भी बेटियाँ हारने वाली नहीं हैं, वे आगे बढ़ रहीं हैं, सरपट भाग रही हैं, हर मोर्चे पर झंडे गाड़ रही हैं। आखिरकार नये संसद के उद्घाटन सत्र में ही उसने संसद और विधानसभाओं में आरक्षण लेकर ही दम लिया।

अपने में डूबते हुए सोचती रही, यह सिर्फ मेरे साथ ही थोड़ा ही हुआ है, यहाँ की बेटियों- महिलाओं के साथ भी यही सब होता रहा, जब उसने नए जमाने के अनुरूप पुरुषों के संग कदम- ताल मिलाकर चलना प्रारंभ किया। उसे रोकने के लिए क्या-क्या नहीं होता रहा है। पहले तो उसके जन्म से पहले भ्रूण में ही मार देने की कोशिश, किसी तरह अगर जन्म हो गया तो पालन-पोषण और समान शिक्षा में हजार तरह के शारीरिक, मानसिक रोड़े, उससे किसी तरह आगे बढ़ी तो कैरियर, शादी, घर-गृहस्थी में हर जगह कहीं दहेज, कहीं तेजाब, तो कहीं तलाक, तलाक और तलाक के नाम पर वज्रपात! देश और दुनिया में न जाने कितनी बेटियों को अपने मूलभूत अधिकार पाने और स्वतंत्र होकर सर उठाकर जीने की चाहत में संगसार कर दिया गया। परंतु फिर भी बेटियाँ हारने वाली नहीं हैं, वे आगे बढ़ रहीं हैं, सरपट भाग रही हैं, हर मोर्चे पर झंडे गाड़ रही हैं। आखिरकार नये संसद के उद्घाटन सत्र में ही उसने संसद और विधानसभाओं में आरक्षण लेकर ही दम लिया।

अपने में डूबते हुए सोचती रही, यह सिर्फ मेरे साथ ही थोड़ा ही हुआ है, यहाँ की बेटियों- महिलाओं के साथ भी यही सब होता रहा, जब उसने नए जमाने के अनुरूप पुरुषों के संग कदम- ताल मिलाकर चलना प्रारंभ किया। उसे रोकने के लिए क्या-क्या नहीं होता रहा है। पहले तो उसके जन्म से पहले भ्रूण में ही मार देने की कोशिश, किसी तरह अगर जन्म हो गया तो पालन-पोषण और समान शिक्षा में हजार तरह के शारीरिक, मानसिक रोड़े, उससे किसी तरह आगे बढ़ी तो कैरियर, शादी, घर-गृहस्थी में हर जगह कहीं दहेज, कहीं तेजाब, तो कहीं तलाक, तलाक और तलाक के नाम पर वज्रपात! देश और दुनिया में न जाने कितनी बेटियों को अपने मूलभूत अधिकार पाने और स्वतंत्र होकर सर उठाकर जीने की चाहत में संगसार कर दिया गया। परंतु फिर भी बेटियाँ हारने वाली नहीं हैं, वे आगे बढ़ रहीं हैं, सरपट भाग रही हैं, हर मोर्चे पर झंडे गाड़ रही हैं। आखिरकार नये संसद के उद्घाटन सत्र में ही उसने संसद और विधानसभाओं में आरक्षण लेकर ही दम लिया।

अपने में डूबते हुए सोचती रही, यह सिर्फ मेरे साथ ही थोड़ा ही हुआ है, यहाँ की बेटियों- महिलाओं के साथ भी यही सब होता रहा, जब उसने नए जमाने के अनुरूप पुरुषों के संग कदम- ताल मिलाकर चलना प्रारंभ किया। उसे रोकने के लिए क्या-क्या नहीं होता रहा है। पहले तो उसके जन्म से पहले भ्रूण में ही मार देने की कोशिश, किसी तरह अगर जन्म हो गया तो पालन-पोषण और समान शिक्षा में हजार तरह के शारीरिक, मानसिक रोड़े, उससे किसी तरह आगे बढ़ी तो कैरियर, शादी, घर-गृहस्थी में हर जगह कहीं दहेज, कहीं तेजाब, तो कहीं तलाक, तलाक और तलाक के नाम पर वज्रपात! देश और दुनिया में न जाने कितनी बेटियों को अपने मूलभूत अधिकार पाने और स्वतंत्र होकर सर उठाकर जीने की चाहत में संगसार कर दिया गया। परंतु फिर भी बेटियाँ हारने वाली नहीं हैं, वे आगे बढ़ रहीं हैं, सरपट भाग रही हैं, हर मोर्चे पर झंडे गाड़ रही हैं। आखिरकार नये संसद के उद्घाटन सत्र में ही उसने संसद और विधानसभाओं में आरक्षण लेकर ही दम लिया।